Friday, September 5, 2008

Nokia codes

These codes have been tested on a Nokia 6600

*#06# - Get the Serial Number/IMEI.
structure of the IMEI : XXXXXX XX XXXXXX X
TAC FAC SNR SP
• TAC = Type approval code
• FAC = Final assembly code
• SNR = Serial number
• SP = Spare

*#0000# - Get the SW version (e.g. V 5.27.0 / 28-06-04 / NHL-10 )

*#2820# - Get the Bluetooth (BT) device address
xx# - Quick contact access (xx = location number, e.g. : 17#)
*#62209526# - Get the MAC address of the WLAN adapter, this information is only available on the new models (S60 3rd edition) which have WLAN.

When switching the phone on with the "ABC" key (pen) pressed, no application is started; it's a "safeboot".

WARNING: here is the list of some dangerous codes; use them with care, I'm not responsible for any damage...
*#7370925538# (*#Res0Wallet#) - Deletes the code for the "wallet" and erase all the content of the "wallet"

*#7780# - Reset to the original settings; some informations are also deleted and need to be re-entered.

*#7370# - Soft format - this will resets all the phone memory (like re-format a disk); make sure to have full battery charged !

[Green]+[def3]+[*+] during a power on performs a hard format : this will return the phone like you have received; make sure to have full battery charged !

*#92702689# (WAR0ANTY) enters into the warranty menu - this code doesn't work with all series 60 phone

Thursday, August 14, 2008

kaaSh dunyaa meiN ye "kaaSh" nah hotaa

kaaSh dunyaa meiN ye "kaaSh" nah hotaa
ziNdaa ho kar bhee maiN laaSh nah hotaa


Bhoole Hai Rafta Rafta Tumhe Muddaton Me Hum...
Kishton Me Khudkhushi Ka Maza Humse Puchiye...




Usse Jo Kabhi Dard Hota Tha
Meri Aankh Mein Ek Aansoo Aane Se,

Aaj Vo Bohat Khush Hota Hai
Meri Hastiyaan Mitaane Se,

Ab Toh Maum Ki Ban Chukki Hu Mein Unke Bagair
Koi Tapish bhi Na Le Jaye Guzar Kar Mere Sirhaane Se,

Hum Toh Jal Chukke Hai Poora
Aur Ab Kaun Rok Sakta Hai Hamein Khaak Ho Jaane Se,

Umeed Toh Ab Bhi Mujhe Unse Hai
Shayad Kafan Dene Hi Aa Jaaye Baad Mere Jaane Ke...nm

yeh nagme hume bahat pasand hai...sayad aap sabko pasand aaye

Dunia ke sitam ki koi perwah nahi mujhko,
wo kyoun mujhpe ungliya uthaye ja rahe hain.
Jis shaks ko janta tha ek chehre se ''kashif''
Uske kitne chehre samne laye ja rahe hain.

Usse Jo Kabhi Dard Hota Tha

Usse Jo Kabhi Dard Hota Tha
Meri Aankh Mein Ek Aansoo Aane Se,

Aaj Vo Bohat Khush Hota Hai
Meri Hastiyaan Mitaane Se,

Ab Toh Maum Ki Ban Chukki Hu Mein Unke Bagair
Koi Tapish bhi Na Le Jaye Guzar Kar Mere Sirhaane Se,

Hum Toh Jal Chukke Hai Poora
Aur Ab Kaun Rok Sakta Hai Hamein Khaak Ho Jaane Se,

Umeed Toh Ab Bhi Mujhe Unse Hai
Shayad Kafan Dene Hi Aa Jaaye Baad Mere Jaane Ke...nm


yeh nagme hume bahat pasand hai...sayad aap sabko pasand aaye

Friday, August 1, 2008

DELETE

Saturday, July 19, 2008

गर आँसू तेरी आँख का होता,

गर आँसू तेरी आँख का होता,
गिरता गाल को चुमते हुए,
फिर गिर के तेरे होठों पर,
फना हो जाता वहीं हॅसते हुए,
पर
जो तुम होती मेरी आँख का आसु,
भले गुजरती उम्र गम सह-सह कर,
तुझे खो ना दूं कही इस डर से,
मै ना रोता ज़िदगी भर|

जब गम तेरा देख के दिल मुझसे नही सम्भलता है

जब गम तेरा देख के दिल मुझसे नही सम्भलता है
तो तेरी खुशियों की खातिर ये यूं ही दिन रात जलता है
ऐसे तो सुनता ही नही खुदा दुआ हमारी अक्सर
पर शायद कभी-कभी हमारे आँसुवों से वो भी पिघलता है

खुदा ये कैसा फैसला तेरा

खुदा ये कैसा फैसला तेरा,
क्या मेरी मोहब्बत थी झुठी,
उनको उनका प्यार मिला,
मुझसे किस्मत क्यों रूठी,
वो नही मिले क्यों मुझको?
इस पर जवाब खुदा का आया,
तुने सच्चे दिल से उसकी खुशीयाँ माँगी,
तभी तो उसे उसका प्यार मिल पाया,

खुदा ये कैसा फैसला तेरा,

खुदा ये कैसा फैसला तेरा,
क्या मेरी मोहब्बत थी झुठी,
उनको उनका प्यार मिला,
मुझसे किस्मत क्यों रूठी,
वो नही मिले क्यों मुझको?
इस पर जवाब खुदा का आया,
तुने सच्चे दिल से उसकी खुशीयाँ माँगी,
तभी तो उसे उसका प्यार मिल पाया,

दूर रह कर भी,

दूर रह कर भी,
कितने करीब हो तुम,
आज ये जान पता हूँ,
जब तेरी यादों को,
सीने से लगाता हूँ,
करीब रह के भी,
न जान पाया तुझे,
आज ये सोच कर,
सिर्फ़ पछताता हूँ,

अंधेरे मे छुप गया चाँद मेरा,

अंधेरे मे छुप गया चाँद मेरा,
हुआ उदास न जाने क्यों दिल मेरा,
जानता हूँ न तू मेरी और न मैं तेरा,
दीदार-ऐ-यार को तरसे क्यों दिल मेरा,
रौशनी की एक किरण उस पर आई,
झलक देख क्यों न भरा दिल मेरा,

एक पल सुखी एक पल दुखी,

एक पल सुखी एक पल दुखी,
दो घड़ी कुछ इस तरह बीत चली,
ज़िंदगी जैसे मुझसे रूठ चली,

एक पल अपना एक पल पराया,
अपनों ने अपनों से धोखा खाया,
ज़िंदगी से अपनों से दूर चला आया,

एक पल खोया एक पल पाया,
प्यार देके कभी प्यार न पाया,
ज़िंदगी ने न जाने कितना रुलाया,

एक पल तेरा एक पल मेरा,
जो बीत गया वो क्या तेरा क्या मेरा,
ज़िंदगी बीती न हो सका कोई मेरा,

एक पल जागा एक पल सोया,
न जाने कितने सपने सजोया,
ज़िंदगी भर रहा सपनो मे खोया,

एक पल भुला एक पल याद आया,
तुझ संग बीता हर पल याद आया,
ज़िंदगी भूला मगर तुझे न भूल पाया,

सूरज की किरण मेरे चाँद से टकराई,

सूरज की किरण मेरे चाँद से टकराई,
तन बदन मे मेरे जैसे आग लग आई,

उसने ली कुछ इस तरह से अंगडाई,
फूलों से उड़ एक तितली मेरे करीब आई,

आँखें खुली नजरो से नज़रे टकराई,
थोड़ा वो शरमाई फिर मुस्कुराई,

दिल मे मेरे सैकडो छुरिया चलायी,
तड़पते रहे कमबख्त मौत भी न आई,

हँसते है ज़माने मैं और भी कई,

हँसते है ज़माने मैं और भी कई,
दिल से हँसते पहली बार देखा है,
आज मैंने उनको हँसते हुए देखा है,
उनकी हँसी दिल को छू जाती है,
चुपके चुपके कुछ कह जाती है,
कसम है उदास न होना तुम कभी,
ये खूबसूरत हँसी न खोना कभी,
तेरी हँसी से है गुलशन खिले,
आता है सावन है फूल खिले,

जुदाई की घड़ी आई,

जुदाई की घड़ी आई,
नजरो से नज़रे टकराई,
आँखो से वो ओझल हुई,
वो मेरी नजरो से ओझल हुई,
रेगिस्तान मे वर्षा आई,
मेरी आँखे इस कदर भर आई,
दिल के फूल मुरझाये,
जब उसकी आँखें भर आई,

खो गया चाँद मेरा कही,

खो गया चाँद मेरा कही,
ढूँढ कर लाये उसे मेरे पास कोई,

वो बहुत शर्मीला है मगर,
मेरे यार जितना शर्मीला नही,

वो बहुत खुबसूरत है मगर,
मेरे यार के आगे कुछ भी नही,

वो देता सुकून दिल को मगर,
मेरे यार बिन मुझे सुकून नही,

वो करता रोशन जग को मगर,
मेरे यार बिन दिल रोशन नही,

जिंदगी दोस्तों के नाम कर दी,

जिंदगी दोस्तों के नाम कर दी,
उनकी खातिर जान कुर्बान कर दी,
मरने का हमे कोई गम नही,
खुशी है दोस्तों को कोई गम नही,
दोस्तों की खुशी में खुश रहे हम,
दर्द अपना न किसी को दे सके हम,
दोस्तों की हँसी में हंस दिए हम,
गम अपने भूल बस हंस दिए हम,
दोस्तों के बुलावे पे दौडे चल दिए हम,
छोड़ अपनों को यूँही बस चल दिए हम,

उनका कातिल-ऐ-हुस्न, छीने मेरा चैन-ओ-सुकून,

उनका कातिल-ऐ-हुस्न, छीने मेरा चैन-ओ-सुकून,
देख के नज़रे झुकाना, कयामत ढाए हम पे ज़माना,
ये तेरी मस्त हँसी, जैसे कोई कली खिली,
ये कातिल निगाहें, छीन के दिल ले जाए,
देख के नज़रे चुराना, जैसे दिल मेरा जलाना,
देख के हमको छुप जाना, जैसे चांदनी में अमावास आना,

सुनी सुनी गलिया सुना सुना आकाश,

सुनी सुनी गलिया सुना सुना आकाश,
चाँद तारे सबको भेजा यार के पास,
चाँद तारो की छाव में प्यारी नींद आए,
हो हर सपना पुरा यार का मेरे,
दुआ दिल से मेरे बस येही आए,

दिल ने कहा उसे सब कह दे,

दिल ने कहा उसे सब कह दे,
गम-ऐ-दिल यार को कह दे,
राज़-ऐ-दिल न यार से छुपा,
दावा न सही यार दुआ तो देगा,
गम सारे लेके मुस्कुराहटे देगा,

कल फिर न सो सका तेरी याद में,

कल फिर न सो सका तेरी याद में,
आज फिर न जाग सका तेरी याद से,
इन अश्को ने याद किया हर पल,
एक पल भी न रुके तेरी याद में,
जागना चाहा एक पल तेरी याद से ,
सो गया अगले ही पल तेरी याद में,
छोड़ दिया है साथ अब पलकों ने,
बंद होंगी अब ये सिर्फ़ मेरी मौत पे,
सोया नही हूँ बरसो से एक पल भी मैं,
जागूँगा बरसो अब तो तेरी याद में,

तुझसे नाराज़ होके कहा जायेंगे,

तुझसे नाराज़ होके कहा जायेंगे,
न जियेंगे और न मर पाएंगे,
देके दर्द तुझे हुआ जीना मुश्किल,
सोचता हूँ मेरे बाद क्या जी पाओगे,
खुशी देनी चाही तुझे हज़ार,
मगर दर्द ही दे सका हर बार,
बंधा हुआ हूँ तुझसे एक रिश्ते में,
तोड़ कर उसे कैसे चला जाऊँ,
दुनिया के रिश्ते याद नही मुझको,
तुझसे दिल का रिश्ता कैसे भुलाऊं,

दोस्त कहूँ तुझे या कहूँ मसीहा,

दोस्त कहूँ तुझे या कहूँ मसीहा,
सिखा तुझसे मैंने जीने का सलीका,

यूँ तो बनाये हैं दोस्त हमने कई,
पर न मिल सका तुझ सा दूजा कोई,

सिखा तुझसे मैंने हमेशा आगे बढना,
भूल बीती को सिर्फ़ कल के लिए चलना,

सिखा तुझसे मैंने मुश्किलों से लड़ना,
बन दीवार अड्डिग होके हमेशा जीना,

सिखा तुझसे मैंने कभी किसी से न डरना,
लड़ ज़माने से हर मुकाम हासिल करना,

सिखा तुझसे मैंने सदा खुश रहना,
गम दिल में छुपाके दुसरो को खुशिया देना,

सिखा तुझसे मैंने सदा मुस्कुराते रहना,
दुसरो को मुस्कुराहटे हज़ार देना,

Friday, July 18, 2008

इन्सान किसी से दुनियां मे, एक बार मोहब्बत करता है

इन्सान किसी से दुनियां मे, एक बार मोहब्बत करता है

इस दर्द को ले कर जीता है, इस दर्द को ले कर मरता है

प्यार किया तो डरना क्या, जब प्यार किया तो डरना क्या

प्यार किया कोई चोरी नहीं की, छूप छूप आहे भरना क्या

आज कहेंगे दिल का फसाना, जान भी ले ले चाहे जमाना

मौत वही जो दुनियां देखे, घूंट घूंट कर यू मरना क्या

उन की तमन्ना दिल में रहेगी, शम्मा इसी महफ़िल में रहेगी

इश्क में जीना, इश्क में मरना, और हमे अब करना क्या

छूप ना सकेगा इश्क हमारा, चारो तरफ हैं उनका नजारा

परदा नहीं जब कोई खुदा से, बंदो से परदा करना क्या

फ़िल्म -मुगले आज़म
गायक -लता मंगेशकर

Thursday, July 17, 2008

हमारी साँसों में आज तक वो हिना की ख़ुशबू महक रही है

हमारी साँसों में आज तक वो हिना की ख़ुशबू महक रही है....सुनिए नूरजहाँ और महदी हसन की आवाज़ में ये गज़ल़
पिछला हफ्ता अंतरजाल यानि 'नेट' से दूर रहा। जाने के पहले सोचा था कि नूरजहाँ की गाई ये ग़ज़ल आपको सुनवाता चलूँगा पर पटना में दीपावली की गहमागहमी में नेट कैफे की ओर रुख करने का दिल ना हुआ। वैसे तो नूरजहाँ ने तमाम बेहतरीन ग़ज़लों को अपनी गायिकी से संवारा है पर उनकी गाई ग़ज़लों में तीन मेरी बेहद पसंदीदा रही हैं। उनमें से एक फ़ैज़ की लिखी मशहूर नज़्म "....मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरी महबूब ना माँग....." इस चिट्ठे पर आप पहले सुन ही चुके हैं। अगर ना सुनी हो तो यहाँ देखें।

तो आज ज़िक्र उन तीन ग़ज़लों में इस दूसरी ग़ज़ल का। ये ग़ज़ल मैंने पहली बार १९९५-९६ में एक कैसेट में सुनी थी और तभी से ये मेरे मन में रच बस गई थी। लफ़्जों की रुमानियत का कमाल कहें या नूरजहाँ की गहरी आवाज़ का सुरूर कि इस ग़ज़ल को सुनते ही मन पुलकित हो गया था। इस ग़जल की बंदिश 'राग काफी' पर आधारित है जो अर्धरात्रि में गाया जाने वाला राग है। वैसे भी महबूब के खयालों में खोए हुए गहरी अँधेरी रात में बिस्तर पर लेटे-लेटे जब आप इस ग़ज़ल को सुनेंगे तो यक़ीन मानिए आपके होठों पर शरारत भरी एक मुस्कुराहट तैर जाएगी।



हमारी साँसों में आज तक वो हिना की ख़ुशबू महक रही है
लबों पे नग्मे मचल रहे हैं, नज़र से मस्ती झलक रही है

वो मेरे नजदीक आते आते हया से इक दिन सिमट गए थे
मेरे ख़यालों में आज तक वो बदन की डाली लचक रही है

सदा जो दिल से निकल रही है वो शेर-ओ-नग्मों में ढल रही है
कि दिल के आंगन में जैसे कोई ग़ज़ल की झांझर झनक रही है

तड़प मेरे बेकरार दिल की, कभी तो उन पे असर करेगी
कभी तो वो भी जलेंगे इसमें जो आग दिल में दहक रही है

इस ग़जल को किसने लिखा ये मुझे पता नहीं पर हाल ही मुझे पता चला कि इस ग़ज़ल का एक हिस्सा और है जिसे जनाब महदी हसन ने अपनी आवाज़ दी है। वैसे तो दोनों ही हिस्से सुनने में अच्छे लगते हैं पर ये जरूर है कि नूरजहाँ की गायिकी का अंदाज कुछ ज्यादा असरदार लगता है।

शायद इस की एक वज़ह ये भी हैं कि जहाँ इस ग़ज़ल के पहले हिस्से में महकते प्यार की ताज़गी है तो वहीं दूसरे हिस्से में आशिक के बुझे हुए दिल का यथार्थ के सामने आत्मसमर्पण।

तो महदी हसन साहब को भी सुनते चलें,इसी ग़ज़ल के एक दूसरे रूप में जहाँ एक मायूसी है..एक पीड़ा है और कई अनसुलझे सवाल हैं...


हमारी साँसों में आज तक वो हिना की ख़ुशबू महक रही है
लबों पे नग्मे मचल रहे हैं, नज़र से मस्ती झलक रही है

कभी जो थे प्यार की ज़मानत वो हाथ हैं गैरो की अमानत
जो कसमें खाते थे चाहतों की, उन्हीं की नीयत बहक रही है

किसी से कोई गिला नहीं है नसीब ही में वफ़ा नहीं है
जहाँ कहीं था हिना को खिलना, हिना वहीं पे महक रही है

वो जिन की ख़ातिर ग़ज़ल कही थी, वो जिन की खातिर लिखे थे नग्मे
उन्हीं के आगे सवाल बनकर ग़ज़ल की झांझर झनक रही है

Tuesday, July 15, 2008

***सपने अपने अपने***

सपने अपने अपने


सपना भी अब एक विज्ञान बन गया है। यही वजह है कि कहते है कि सपने बेकार नहीं होते बल्कि उनके दिखने के पीछे भी राज होता है। जानकारों के मुताबिक कई सपने हमें हमारे अच्छे-बुरे भविष्य की ओर ईशारा भी करते हैं। मसलन आपने सपने में ग्रहण पड़ता हुआ देखा है, तो यह शुभ लक्षण नहीं है। भविष्य में आपको अनेक प्रकार के झंझटों का सामना करना पड़ सकता है। समाज में आपका अपमान, निंदा तिरस्कार आदि भी हो सकता है। आपको कोई रोग भी हो सकता है। आपने स्वप्न में चूड़ियां देखी हैं तो यह शुभ लक्षण है। इसका अर्थ ताउम्र साथ निभाना है। कुंआरी कन्या अगर यह स्वप्न देखती है,तो उसके पति का प्रतीक है और यदि यह स्वप्न कोई विवाहित स्त्री देखती है। तो उसके पति की उम्र लंबी होती है। अगर पति किसी रोग से पीड़ित है,तो वह जल्दी ही रोग मुक्त होने वाला है।आपने स्वप्न में जाल देखा है,तो यह अशुभ स्वप्न है। जाल बंधन का प्रतीक माना गया है। आने वाले समय में आपको किसी मुसीबत या बंधन का सामना करना पड़ सकता है। आपने स्वप्न में फलों से भरा हुआ ठेला देखा है, तो इसे बहुत ही शुभ समझिए। यदि खाली ठेला दिखाई दे, तो यह धनाभाव का संकेत है और यदि ठेला मैले से भरा हुआ है, तो इस बहुत ही अशुभ समझिए। आप स्वप्न में पकवान देख रहे हैं, तो यह सामान्य फलदायी स्वप्न है। आप स्वयं पकवान खा रहे हैं, तो यह रोगावृद्धि का संकेत है और यदि आप किसी दूसरे को पकवान खिला रहे हैं, तो यह अत्यंत ही शुभ है। आपने स्वप्न में रास्ता या पगडंडी देखी है, तो इसका परिणाम शुभ होगा। आप इसे अनेक उलझी हुई समस्याओं के हल का मार्ग मान सकते हैं। यह आपकी समस्याओं के हल का भी प्रतीक है।आप स्वप्न में खुद को परिश्रम करता हुआ देखते हैं, तो यह सफलता का प्रतीक है। भविष्य में आप ज्यादा मेहनत करके अपने कार्यों में सफलता पा सकते हैं। आपने स्वप्न में घास देखी है,तो यह शुभता का प्रतीक है। हरी घास पशु धन के आगमन की सूचना देती है, जबकि सूखी घास घर में निर्धनता की सूचक होती है।आपने स्वप्न में अपने शरीर के किसी अंग में दर्द होता हुआ देखा है, तो आने वाले दिनों में आपके शरीर के किसी भाग में चोट लग सकती है या दर्द हो सकता है। ऐसे कई सपने हैं जिसका कोई न कोई अर्थ माना जाता है। लेकिन सपने का फल कब मिलता है इस पर अब तक विवाद है। लेकिन विषय बेशक दिलचस्प है।

Saturday, April 19, 2008

पत्र से मोबाईल तक

पत्र लिखने का चलन बड़ा पुराना है। पत्र को 'आधा मिलन' कहा गया है। लेकिन जब से सूचना प्रौद्योगिकी का युग आया है, पत्र-लेखन का संफाया होता जा रहा है। अब तो टेलीफोन और मोबाईल का जादू आदमी के सिर पर चढ़कर बोल रहा है। लोग पत्र लिखने से जी चुराने लगे हैं।छोटों द्वारा सहर्ष चरण-स्पर्श, बहिना का प्यार, ननदी के उलाहने, भाभी की नसीहत, हास-परिहास, मैत्री-भाव की बौछार, ज्ञान-उपदेश, मंगल-कामना संदेश, मीठी-मीठी रस भरी बतियां, उनकी स्मृतियां, शिकवे-गिले, दो दिलों के बीच बनी प्रीति के सिलसिले। कितना कुछ होता था रिश्तों की सुगन्ध से महकते-चहकते इन पत्रों में!अब तो वह समूचा रस-सागर ही सूखता जा रहा है। पत्र होंगे ही नहीं, तो कौन उन्हें बड़े जतन से संभाल कर धरेगा? कौन उन्हें बार-बार पढ़कर यादों को तरोतांजा करेगा? अब किसी बेवफा के प्रेम-पत्रों को न आग में जलाने की जरूरत पड़ेगी, न नदी में बहाने की।मरने के बाद, किसी के घर से अब चन्द हसीनों के खतूत तो निकलने से रहे। कोई झूठ-मूठ भले ही कहे। बड़े-बड़े लेखकों, कवियों और प्रेमी-प्रेमिकाओं के लिखे पत्र अमूल्य धरोहर बन गए। वे पत्र हजारों लाखों डालरों में नीलाम हुए। अब क्या होगा? न नाम, न दाम। पूर्ण विराम।इस हाईटेक ंजमाने में कौन कमबख्त पत्र लिखने-लिखाने के झंझट में पड़े, कांगंज-कलम ढूंढता फिरे, सोचने-विचारने में समय बर्बाद करे, भावों को सहेजे-समेटे, रच-पच कर लिखे, ताकि पत्र सुन्दर दिखे और फिर उसे लैटर बॉक्स में डालने की जहमत उठाए या खुशामद करके किसी से डलवाए। लैटर-बॉक्स भी तो डाक-विभाग का लैटर-बॉक्स है। समय पर खुला न खुला।प्रेमी-प्रेमिकाओं द्वारा चोरी-छुपे पत्र-लिखकर उसे कंकड़ में लपेट कर फेंकने, धोबी के कपड़ों की तह में रख कर भेजने, किताबों-कापियों में घर तक देने, या टॉफी-चॉकलेट खिला कर पटाए गए किसी बच्चे के हाथ पहुंचाने और मंगवाने में जो एक थ्रिल था, रोमांच था, वह भी हवा हुआ।पत्र पाने का कितनी बे सब्री से इन्तंजार रहता था। उस इन्तंजार में कितना मंजा था। 'हलो-हलो' के कारण अब वह भी हिलने लगा है। बिल्कुल दम तोड़ने के कगार पर है।पत्रों में मिलने की उत्कण्ठा बसी रहती थी और व्यक्ति को आने के लिए कहती थी। अब तो फोन पर बातें बना लेना ही कांफी है। मिलने जुलने की, खिलने-खुलने की आवश्यकता नहीं रही।आप घर में हों या दफ्तर में, मोटर साइकिल पर सवार हों या कार में, जरूरी मीटिंग में हों या ईटिंग में, किसी भरी सभा में हों अथवा शोकसभा में, हर जगह मोबाईल फोन। तरह-तरह की एक से एक बढ़िया फिल्मी गीतों की टोन। सुनते ही लगाएं कान और मुंह पर। करें फटाफट ठाट से बातें ही बातें।मोबाईल के जरिए अब बड़ी आसानी से झूठ बोला जा सकता है। बॉस और बीवी-बच्चों की डॉट से बचा जा सकता है कि रास्ते में हैं। भारी ट्रैफिक में फंस गए हैं। बस, सुनवा दीजिए बॉस को बैकग्राउण्ड टोन में बजते हार्न और गाड़ियों की आवांजें। भले ही आप अपनी नई प्रेमिका के साथ कहीं प्यार की पींगे बढ़ा रहे हों, उस पर अपना रंग चढ़ा रहे हों, पर मोबाईल पर पत्नी को बताइए कि आप कारखाने में डयूटी पर ही हैं। आपके कहने के साथ जब मोबाईल की बैकग्राउण्ड टोन चलती हुई मशीनों की आवांज सुनाएगी, तो निश्चित रूप से आपकी बात सच मानी जाएगी।अब तो मोबाईल फोन में लगे कैमरे से किसी के भी, किसी भी समय, कैसे भी फोटो चुपचाप उतारे जा सकते हैं और वे मोबाईल के द्वारा दूसरों तक पहुंचाए जा सकते हैं। मनोरंजन और धन्धा दोनों एक साथ। आम के आम गुठलियों के दाम।आपके मोबाईल से दूसरे लोग डिस्टर्ब हों, तो हों। आप क्यों चिन्ता करें? मोबाईल की वजह से आप अन्य लोगों की निगाह में तो आए। आपका स्टेटस तो बढ़ा। कान पर मोबाईल लगाए घूमना अब शान की निशानी मानी जाती है।आजकल जो व्यक्ति मोबाईल-फोन नहीं रखता, उसे हद दर्जे का कंजूस और बैकवर्ड समझा जाता है और हिकारत की नंजर से देखा जाता है। लोग बार-बार उससे उसका फोन या मोबाईल नंबर पूछ कर उसमें हीन भावना जगाना तथा उसे लाा का एहसास कराना अपना परमर् कत्तव्य मानते हैं।डाकखाने वाले अब पत्रों के भारी-भारी थैलों से जल्दी ही छुटकारा पाएंगे। बेचारे डाकवाले अब 'डाक के डाकू' कहलाने के आरोप से भी बच जाएंगे। डाकिए अब पत्रों के बजाय घर-घर जाकर मोबाईल पर संदेशा सुनवाएंगे और हाथों-हाथ उनके जवाब भिजवाएंगे। तुरंत दान, महा कल्याण। प्रेमियों के लिए भी अब पत्र के इंतजार की घड़ियां और आंसू की झड़ियां खत्म। मोबाईल की फुल- झड़ियां जो हैं।आज के लड़के सगाई होते ही लड़की से बातें करते रहने की गरज से या तो खुद ही, या अपनी मामी-भाभी वगैरह को पटा कर लड़की को भेंट के रूप में मोबाईल थमाने लगे हैं। भूल कर भी अब पत्र लिखने के लिए नहीं कहा जाता। वे ंजमाने गए।वह समय दूर नहीं, जब सामान्यत: पत्रों का घोर अकाल नंजर आएगा। प्रार्थना-पत्रों और व्यापारिक पत्रों ने 'ई-मेल' तथा 'फैक्स' से नाता जोड़ लिया है। लोगों ने शिकायती पत्रों को तो लिखना ही छोड़ दिया है। ठीक ही किया है। क्या फायदा उन्हें लिखने का? उन पर कोई कारवाही तो होती नहीं, सिंर्फ लीपा-पोती हो कर रह जाती है। किससे कहें? नीचे से ऊपर तक सब के सब एक ही रंग में रंगे हुए। जैसे नागनाथ वैसे सांपनाथ।अब पत्रों के रूप में लोग बस 'संपादक के नाम पत्र' ही लिखा करेंगे जो पत्र-पत्रिकाओं में प्रमुखता से स्थान पाएंगे। उन पत्रों में संपादक को खुश करने के लिए उनके अद्भूत संपादन-कौशल की भूरि-भूरि प्रशंसा होगी और केवल अपनी फेंटी के रचनाकारों की हवाई तारींफ के पुल बांधे जाएंगे।

रोचक

उड़ीसा के केंद्रपाड़ा जिले के सियालिया गांव में लोगों ने अपने घरों को ऊपरवाले के रहमोकरम पर छोड़ा हुआ है। उनका मानना है कि उनके घरों में चोरों को घुसने की हिम्मत नहीं हो सकती। इसके पीछे उनका विश्वास है कि चोरों के उनके घरों में प्रवेश करने का मतलब होगा चोरों का विनाश. दरअसल चोरों और गांववालों का मानना है कि गांव की देवी खाराखई ठाकुरानी उनके घरों की रखवाली करती हैं। लोगों ने अपने घरों में खाराखई ठाकुरानी देवी की मूर्ति लगा रखी हैं। चोर इस देवी के प्रकोप के डर से घरों में घुसने की कतई हिम्मत नहीं करते। किसानों और व्यापारियों के इस गांव में लगभग 150 घर हैं।

मैं पीएच.डी. हो गया हूं !

पीएच.डी. की उपाधि पिछले सात-आठ सालों से अध्यापक कुछ ज्यादा ऐंठने लगे हैं। सरकार को उस ज्यादती का पता चला तो वह सोचने लगी -'हर फेकल्टी मेें अध्यापक इस तरह पीएच.डी. हो रहे हैं, जैसे जमीन की दर से निकलती धड़ा-धड चींटियां।'सरकार ने फौरन आकस्मिक सर्व-दलीय बैठक बुलायी और इस गंभीर विषय पर चर्चा हुई। निर्णय लिया गया कि एक 'सत्य शोधक समिति' बनायी जाए, और एक महीने बाद रिपोर्ट तैयार की जाए। एक महीने के बाद सत्य शोधक समिति ने यह सत्य जान लिया कि अधिक पीएच.डी. होने का अहम कारण सरकार की ओर से मिलने वाले दो ईजाफेहैं। सरकार ने शीघ्र निर्णय लिया कि 'सरकार की ओर से मिलने वाले दो ईजाफे बंद किये जाएं और जिन्होंने दो ईजाफे लिये हैं उनसे वापस लिये जाएं।'सरकार की इस खबर से सारे अध्यापक आलम में खलबली मच गयी। सरकार को मानो ऐसा लग रहा है कि जैसे अध्यापक मात्र दो ईजाफ ो के लिए पीएच.डी. करते हों। वैसे भी, समाज के अधिक व्यक्ति, अध्यापक की अधिक आय को लेकर बहुत दु:खी हैं। कहते हैं, ''दो घंटे पढ़ाते हैं और महीने में तीस हजार पाते हैं।'' सरकार ने यह भी सूचना दी कि पीएच.डी. का स्तर सुधारा जाए। उसका विषय मानव जीवन से संबंधित होना चाहिए। कुछ भी हो मगर अब पीएच.डी. करने वालों की खैर नहीं। अध्यापक मंडलों की स्थिति भी दो ईजाफों जैसी हो गयी है। जो हड़ताल पर उतरे थे उन अध्यापकों के बढाेत्तरी के स्केल सरकारी दफ्तरों में अटके हुये हैं। बेचारों की दयनीय स्थिति है। खैर, यह सब बातें जाने दो, लेकिन यह बात जरूर है कि शिक्षा विभाग में, सरकार क्रांतिकारी तब्दीलियां ला रही है। आज इसी सिलसिले मेें मैं बात करने जा रहा हूं मेरे मित्र शंकरलाल की, आज विज्ञान विभाग में सीनियर अध्यापक के रूप में कार्यरत हैं। मेरे मित्र शंकरलाल ने मात्र पीएच.डी के दो ईजाफे लिये हैं। पीएच.डी. करने का बीड़ा उठाया था। लेकिन हाल ही में सरकार ने जो इजाफे बंद किये उसके वे शिकार हो गये। वे रोता हुआ चेहरा लेकर मेरे पास आये और बोले -''यार, मेरी पीएच.डी. की उपाधि का कोई मतलब नहीं रहा। बहुत पैसे बिगाड़े, पर उगे नहीं।''मैंने कहा - ''मैं कुछ समझा नहीं। शंकर, तू कहना क्या चाहता है?''वह बोला - ''जिसके लिए हमने उपाधि ली वह मकसद पूरा नहीं हुआ।''मैंने कहा - ''यार, मैंने भी अभी-अभी पीएच.डी. की लेकिन मुझे तो बहुत फायदा हुआ।''''क्या तुम्हें दो ईजाफे मिल गये?''''ना भाई ''''तो कैसा फायदा?''मैंने कहा - ''मैंने जिस लेखक पर काम किया, उनकी सभी रचनाओं से परिचित हुआ, और सबसे बड़ी बात यह है कि उस लेखक का सारा रचना संसार पढ़कर आज मैं व्यंग्य लेखक बन गया हूं।'' ''वह क्या होता है?''''यार, तुम्हारे साइंस में नहीं होता।'' ''किसमें होता है?''''कवि-लेखक जो साहित्य लिखते हैं, उसमें होता है।'' इतना समझाने के बाद भी मेरा मित्र कुछ उलझन में था। मैंने पूछा - ''अब किस बात की चिंता है?''वह बोला - ''यार, पीएच.डी. न करता तो अच्छा होता, कम से कम मेरा किया खर्च तो बच जाता। अगर उस रूपये को शेयर मार्केट में डाल देता तो अच्छा होता। यहां तो कोई लाभ नहीं....।'' मैंने कहा - ''अभी भी एक लाभ है।''हंसमुखा चेहरा बनाकर बोला - ''जल्दी बता दे मेरे यार।''मैंने कहा - ''कोई अच्छी कॉलेज में प्रिंसिपल बन जाओ।''आचार्य के लिए पीएच.डी. की उपाधि होना जरूरी है।वह बोला - ''हां यार, बात तो मुद्दे की है।'' मैंने कहा - ''आजकल आचार्य की ढेर सारी जगहें खाली हैं। जगहें भरी नहीं जाती। कारण, उसमें दोनों पक्षों को फायदा होता है। सरकार को भी और ट्रस्टी मंडल को भी।''''वह कैसे?''प्रिंसिपल का वेतन बच जाता है। दूसरी ओर कार्यकारी प्रिंसिपल रखने से ट्रस्टी मंडल उसे जैसे नचाएंगे, बेचारा वैसे नाचेगा। ''लेकिन उनको सेलरी मिलती है।''''हां,''''कितनी?''''जितना अध्यापक को मिलती है।''''एक्स्ट्रा कुछ?''मैंने कहा - ''कुछ नहीं, लेकिन आचार्य का लेबल तो लग जायेगा। साथ-साथ दूसरा फायदा यह है कि अगर आपकी मंडल से अनबन हो गयी तो कुर्सी कभी भी खाली कर सकते हो। मगर पूर्णकालीन आचार्य बन गये और अनबन हो गयी तो.....।''वह बोला - ''मैं तो कार्यकारी प्रिंसिपल ही बनूंगा।''मैंने कहा - ''तुम अच्छे विचारक हो, लेकिन वहां भी एक समस्या है।''''कैसी?''''आपको ट्रस्टी मंडल के आगे-पीछे दुम हिलानी पड़ेगी।''''दुम क्या होती है?''''पूंछ, यार।''''वह तो पशुओं को होती है। मैं तो समाज का श्रेष्ठ शिक्षित व्यक्ति हूं।''मैंने कहा - ''जिस दिन तू कार्यकारी प्रिंसिपल बन गया, उस दिन दुम अपने आप उग निकलेगी। फिर हिलाते रहना।''दुम का बहुत पुराना महत्वपूर्ण इतिहास रहा है। हमारे भारत में दुम की काफी बोलबाला है। इसी सिलसिले में मुझे एक कवि का दोहा याद आ रहा है -दुम हिली कुर्सी मिली, जीभ हिली कि जेल॥मैंने आशीर्वाद देते हुये कहा - ''मित्र, दुम हिलाते रहोगे तो भवसागर पार कर दोगे, लेकिन समाज के एक श्रेष्ठ व्यक्ति का नाश हो जायेगा।''शंकरलाल बनने जा रहे थे कार्यकारी प्रिंसिपल, मगर, उसी समय किसी कॉलेज की पूर्णकालीन आचार्य की जगह आयी। पैसों की लालच को रोक नहीं पाया। वह विज्ञापन की प्रति लेकर मेरे पास आया और कहने लगा -''मैं तो पूर्णकालीन आचार्य बनना चाहता हूं।''''तुम स्वतंत्र हो, जो बनना चाहो बनो, लेकिन यह बताओ कि पीएच.डी. हुये कब? थीसिस तो एकाध महीने पहले तो सबमिट की। मेरी थीसिस सबमिट करने के बाद पांच या छ: महीने में डिग्री आयी थी।''वह बोला - ''उसकी चिंता छोड़, वह सब हो जाएगा।''शंकरलाल रात दिन एक करने लगे। लगभग थीसिस सबमिट करने के बाद डेढ़ महीने में डिग्री लाने में सफल हो गये। इस देश में सब कुछ संभव है। मैंने सुना था कि दक्षिण के किसी राज्य में कुएं की चोरी हो गयी थी, और उस पर मुकदमा भी चला था। सुई के छेद से ऊंट का निकलना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है, लेकिन किसी खिल्ले को पकड़ लिया तो यह काम भी मुमकिन हो जाएगा। भाई, ये हिन्दुस्तान है। शंकर ने मेरे पास आकर कहा - ''डिग्री आ गयी, लेकिन अभी तक इंटरव्यू नहीं निकला।''मैंने कहा - ''यार, आचार्य के सभी गुण आपमें विद्यमान हैं। तुम शीघ्र आचार्य का पद ग्रहण करो।''शंकरलाल आचार्य बनने जा रहे थे, इस खबर से कुछ अध्यापक मित्रों ने सुझाव दिये कि यार, हमारी कौम पर थोड़ी दया रखना, नवनीत ने कहा कि थोड़ा प्रैक्टिकल रहना। शंकरलाल ने सभी मित्रों के सुझावों का ख्याल रखने का वादा किया। इंटरव्यू निकला, शंकरलाल ने जोड़ तोड़ शुरु कर दिया। शंकरलाल राजनीतिक दबाव भी लाए, लेकिन इंटरव्यू में ट्रस्टी का जमाई भी था। उसक ा सिलेक्शन हो गया। इंटरव्यू के दूसरे दिन रोता हुआ चेहरा लेकर आया, और जमीन पर गिरते हुये सहसा उसके मुंह से निकल गया -''हे भगवान! मैं पीएच.डी. क्यों हुआ?''

वरदान मुँशी प्रेमचँद की कहानी

विन्घ्याचल पर्वत मध्यरात्रि के निविड़ अन्धकार में काल देव की भांति खड़ा था। उस पर उगे हुए छोटे-छोटे वृक्ष इस प्रकार दष्टिगोचर होते थे, मानो ये उसकी जटाएं है और अष्टभुजा देवी का मन्दिर जिसके कलश पर श्वेत पताकाएं वायु की मन्द-मन्द तरंगों में लहरा रही थीं, उस देव का मस्तक है मंदिर में एक झिलमिलाता हुआ दीपक था, जिसे देखकर किसी धुंधले तारे का मान हो जाता था।
अर्धरात्रि व्यतीत हो चुकी थी। चारों और भयावह सन्नाटा छाया हुआ था। गंगाजी की काली तरंगें पर्वत के नीचे सुखद प्रवाह से बह रही थीं। उनके बहाव से एक मनोरंजक राग की ध्वनि निकल रही थी। ठौर-ठौर नावों पर और किनारों के आस-पास मल्लाहों के चूल्हों की आंच दिखायी देती थी। ऐसे समय में एक श्वेत वस्त्रधारिणी स्त्री अष्टभुजा देवी के सम्मुख हाथ बांधे बैठी हुई थी। उसका प्रौढ़ मुखमण्डल पीला था और भावों से कुलीनता प्रकट होती थी। उसने देर तक सिर झुकाये रहने के पश्चात कहा।
‘माता! आज बीस वर्ष से कोई मंगलवार ऐसा नहीं गया जबकि मैंने तुम्हारे चरणो पर सिर न झुकाया हो। एक दिन भी ऐसा नहीं गया जबकि मैंने तुम्हारे चरणों का ध्यान न किया हो। तुम जगतारिणी महारानी हो। तुम्हारी इतनी सेवा करने पर भी मेरे मन की अभिलाषा पूरी न हुई। मैं तुम्हें छोड़कर कहां जाऊ?’
‘माता! मैंने सैकड़ों व्रत रखे, देवताओं की उपासनाएं की’, तीर्थयाञाएं की, परन्तु मनोरथ पूरा न हुआ। तब तुम्हारी शरण आयी। अब तुम्हें छोड़कर कहां जाऊं? तुमने सदा अपने भक्तो की इच्छाएं पूरी की है। क्या मैं तुम्हारे दरबार से निराश हो जाऊं?’
सुवामा इसी प्रकार देर तक विनती करती रही। अकस्मात उसके चित्त पर अचेत करने वाले अनुराग का आक्रमण हुआ। उसकी आंखें बन्द हो गयीं और कान में ध्वनि आयी।
‘सुवामा! मैं तुझसे बहुत प्रसन्न हूं। मांग, क्या मांगती है?
सुवामा रोमांचित हो गयी। उसका हृदय धड़कने लगा। आज बीस वर्ष के पश्चात महारानी ने उसे दर्शन दिये। वह कांपती हुई बोली ‘जो कुछ मांगूंगी, वह महारानी देंगी’ ?
‘हां, मिलेगा।’
‘मैंने बड़ी तपस्या की है अतएव बड़ा भारी वरदान मांगूगी।’
‘क्या लेगी कुबेर का धन’?
‘नहीं।’
‘इन्द का बल।’
‘नहीं।’
‘सरस्वती की विद्या?’
‘नहीं।’
‘फिर क्या लेगी?’
‘संसार का सबसे उत्तम पदार्थ।’
‘वह क्या है?’
‘सपूत बेटा।’
‘जो कुल का नाम रोशन करे?’
‘नहीं।’
‘जो माता-पिता की सेवा करे?’
‘नहीं।’
‘जो विद्वान और बलवान हो?’
‘नहीं।’
‘फिर सपूत बेटा किसे कहते हैं?’
‘जो अपने देश का उपकार करे।’
‘तेरी बुद्वि को धन्य है। जा, तेरी इच्छा पूरी होगी।’

अबोध प्रतिशोध

वह एक व्याध था। मृगों के पीछे काफी दूर तक दौड़ता चला आया था, पर आज एक भी मृग हाथ नहीं आया। निराश मन से उसने जंगल में एक नजर चारों तरफ डाली और पीछे लौटने ही वाला था कि एक तपस्वी ने टोकते हुये कहा - 'वत्स, क्यों इन सुंदर प्राणियों का खून बहाते हो? इस वन में हर जगह उदरपूर्ति के लिये यूं ही बहुत कुछ मिल जायेगा।''आप कौन हैं?' व्याध चकित होता हुआ बोला। 'मुझे अपना मित्र जानो।' तपस्वी मुस्कराकर बोला। व्याध अवाक, गुनाह की हीन-भावना से ग्रसित एकदम चुप। तपस्वी मुस्कराकर बोला - 'इस वन प्रदेश में अपना कुछ न होते हुये भी ऐश करते हैं हम। भाई, किसी के प्राण लेकर उदरपूर्ति का साधन जुटाना, निर्माण नहीं विध्वंस है। एक मरा हुआ मृग घर ले जाकर तुम विजयी की भांति घरवालों के बीच सृष्टि के निर्माता की तरह गर्वान्वित रहोगे मगर यदि इसके परिवार वाले तुम्हें रास्ते में मिल गये तो उनके समक्ष निर्माता नहीं, तुम विनाशक कहलाओगे।'कहते हुये तपस्वी ने उसके कंधे पर हाथ रखा ही था कि हवा तेज चलने लगी। तपस्वी ने मुस्कराकर उसकी हीन-भावना दूर करने की चेष्टा करते हुये उसके सर पर हाथ फेरा ही था कि हवा और तेज हो गयी - मानो आंधी चलने लगी हो। धूल उड़ने लगी - पेड़ों की डालियां मानो नृत्य करने लगी। बवंडर सा उठ खड़ा हुआ। तभी एक पेड़ उस व्याध पर आ गिरा और वह बेहोश हो गया। तपस्वी भी आंधी की चपेट में न जाने कहां ओझल हो गया। बहुत देर तक तूफान असामान्य गति से सारे वन को रौंदता रहा। करीब घंटे भर बाद तूफान शांत हुआ तो मूर्छित पड़े व्याध की आंखें खुली - बदहवासी का उजाला था आंखों में। चारों तरफ विशाल फैले जंगल को शांत और नीरव पाया। सर उठाकर ऊपर देखा - सपाट आसमान - सूर्य अस्ताचल की ओर बढ़ रहा था। सर पर लगी चोट की पीड़ा तो नहीं थी मगर अंदर बाहर सब तरफ से वह अपने आपको असामान्य महसूस कर रहा था। कभी सर उठाकर क्षितिज पर फैली आसमान की नीली मगर दुधिया चादर को देखता, तो कभी नीचे जमीन की ओर देखता। उसने सामने हवाओं का उत्पात मचा चुके मगर अब स्तब्ध खड़े वृक्ष पर हाथ टेके, डालियों को हिलाया, कुछ समझ न आया कि क्या करें और क्यों करें? उस नीरव हुये वन प्रांगण में शिशु की भांति उछलकूद भी की- देखते देखते अचानक नाम मात्र को पहने हुये अपने कपड़े भी नोचने लगा - जैसे कि उसे समझ न आया हो कि उसके शरीर पर यह सब क्या है? फिर अपनी ही बांह पर चिकोटी काटी। दर्द से बिलबिलाया भी, मगर जान न पाया कि क्या हुआ है, क्यों हुआ है? शायद उसकी याददाश्त चली गयी थी। तभी तो वह बच्चों की सी हरकतें कर रहा था। थोड़ी दूर खड़ा तपस्वी किंकर्तव्यविमूढ सा उसे देख भर रहा था। कांपते हुये शरीर के साथ व्याध कभी इधर कभी उधर तेज कदमों से मानों धरती को नाप रहा था। शायद उसकी जिज्ञासा यह रही होगी कि जिस धरातल पर वह खड़ा है - उसका छोर कहां तक है। अभी थक कर जमीन पर बैठने ही वाला था कि तपस्वी उसके नजदीक आकर बोला - 'क्यों इतने बेचैन हो, वत्स?'व्याध उसे आंख फाड़ कर देखने लगा। प्रत्युत्तर के लिए मुंह खोला, मगर क्या बोलता - याददाश्त चली गयी थी। न भाषा, न शब्द - क्या है, क्यों है, कैसे कहे -वह बच्चों की तरह रोने लगा। तपस्वी ने सांत्वना स्वरूप हाथ बढ़ाया तो व्याध पीछे हटा - और डरकर मुड़कर भाागा, धरती का एक छोर मिला, तब रूका। सामने स्वच्छ दिखते पानी का सरोवर था। पानी देखकर दंग - यहां धरती, जो उसके इतना जोर मारने पर भी हिली नहीं वही यहां चमक-चमक कर हिल भी रही थी। पानी क्या होता है, उसे क्या मालूम - याददाश्त की बेरहम चोट से वह अपने जीवन के पचीस वर्ष पीछे जो पहुंच गया था - नन्हें बालक की तरह उसने पानी को छुआ - हाथ गीले हुये तो अंगुली को होठों पर रखकर मानो चखा हो। प्यास को थोड़ा आराम मिला जब दो तीन बार यों किया। फिर अंजुरि पानी में पसारकर भरी हथेली का पानी मुंह में डाल लिया। बहुत अच्छा लगा। झुककर फिर हाथ पानी में डाला। उसे अपना प्रतिबिम्ब नजर आया - उसे देखकर वह भय से उठ खड़ा हुआ। प्रतिबम्ब में भी वैसी ही हरकत हुई, जिसे देख वह फिर बैठ गया। तभी वह तपस्वी वहां पहुंच गया। उसने व्याध के कंधे पर हाथ रखा। व्याध ने पीछे मुड़कर विस्मय से उसकी तरफ देखा जरूर, मगर अब डरकर भागा नहीं। बल्कि इशारे से आ....ऊ... करके बोलते हुये पानी में उसे अपना प्रतिबिंब दिखाने लगा। इस बार तपस्वी का भी प्रतिबिम्ब था - दो दो प्रतिबिम्ब देखकर व्याध का मुंह पहले की अपेक्षा ज्यादा खुला रहा गया।लेकिन इस बार तपस्वी भी विस्मित था, क्योंकि पानी में अपने प्रतिबिम्ब के साथ उसे एक वानर का प्रतिबिम्ब दिखाई दे रहा था। वहां से नजरें हटाकर व्याध की तरफ देखा तो वह उसे मनुष्य ही नजर आया फिर पानी में उसका प्रतिबिम्ब - बंदर! तपस्वी हरप्रभ था। व्याध थोड़ा चंचल तो थोड़ा भौचक्का भी था। तभी तपस्वी मुस्कराया, क्योंकि पानी के प्रतिबिम्ब आपस में बातें कर रहे थे। बंदर रूपी व्याध प्रतिबिंब में तपस्वी से कह रहा था - 'मैं अंगद हूं। मुझे भगवान राम से अपने बाप को छल से मारने का प्रतिशोध लेना है, बता सकते हो - वे कहां मिलेंगे।'तपस्वी पानी का यह नजारा स्तब्ध होकर देख रहा था कि व्याध मानों सारी बचपन की हरकतें छोड़कर परिपक्वता के जोश में भरकर तपस्वी को झकझोर कर बोला। 'हे साधु, मुझे रास्ता दिखा।' तपस्वी स्तब्धता छोड़कर मुस्कराकर उससे बोला - 'हां वत्स, मैं समझ गया तुम व्याध के रूप में भगवान राम की सेना के एक वानर सैनिक हो। मैं जान गया, तुम बालि के पुत्र अंगद हो।''मैं जो भी हूं मुझे रास्ता दिखाओ तपस्वी।' व्याध बोला। चेहरे से मासूम दिखते जरा नामक व्याध पर अब अपरंपार तेजस्विता आ गयी थी। 'हालांकि भगवान राम के प्रति तुम्हारी भक्ति बेमिसाल है, मगर उन्हीं की इच्छा से बगैर तुम्हारे प्रतिशोध के न तुम्हारी मुक्ति संभव है न स्वयं भगवान की।' तपस्वी ने स्नेहसिक्त वाणी में कहा - 'जाओ, यहां से सौ गज की दूरी पर दक्षिण दिशा में एक वृक्ष के नीचे पद्मासन लगाये तुम्हें भगवान राम मिलेंगे। श्रीकृष्ण रूप में उन्होंने जगत को बहुत उजाला प्रदान किया है। थक कर बैठे हैं - उन्हें सजा देकर उनको भी मुक्त करो और अपना भी आत्म उद्धार करो।'कहकर तपस्वी वेष में आये मुनि वेदव्यास ने उसे एक तीर धनुष पकड़ा दिया, जिसे लेकर वह उधर ही दौड़ पड़ा जिधर का व्यास जी ने उसे निर्देश दिया था। आगे सौ गज की दूरी पर एक वृक्ष के नीचे भगवान श्रीकृष्ण पद्मासन लगाये बैठे थे। व्याध ने दूर से उन्हें लक्ष्य किया और आंखें बंद कर तीर छोड दिया। तीर भगवान के चरणों में जा लगा। अब अंगद जैसे प्रभु के प्यारे वानर को उनके शरीर पर उनके चरणों के सिवा क्या दिखता। भले रूप बदलकर कृष्ण बन जाओ या राम बने रहो। एक आह के साथ केशव ने प्राण त्यागकर अपने धाम को कू च कर दिया। व्याध ने आंख बंद कर ली थी - अब खोली तो न तीर था न धनुष था हाथ में। उसके हाथ जुड़े हुये थे, माथा श्रीकृष्ण के पैरों पर झुका हुआ था जहां उसका तीर चुभा हुआ था। बेचारा जरा चिल्ला उठा -'हाय रे जरा, ये तूने क्या कर डाला?'उसकी याददाश्त वापस आ गयी। तभी पीछे से आकर तपस्वी रूपी वेदव्यास ने उसके कंधे पर हाथ रखा और कहा - 'वत्स, जरा, विलाप मत करो, जो कुछ हुआ -भगवान की इच्छा से ही हुआ है- जाओ अब तुम्हारे भी उद्धार का वक्त आ गया है।'कहकर महामुनि श्री वेदव्यास जी अंतर्ध्यान हो गये और जरा नामक वह व्याध उठकर जंगल में आगे जाकर लुप्त हो गया।

Friday, April 18, 2008

मन का दर्द - कलम का माध्यम

गुजरात में जब भी साहित्य, कविता, कहानी की बात होती है तो अहमदाबाद का जिक्र स्वत: ही आ जाता है। वहां पर कई जाने-माने लेखकों-कवियों ने अपनी सेवाएं दी तो आज के दौर में भी कई जाने-माने लेखक, कवि, कथाकार अहमदाबाद से ताल्लुक रखते हैं जिनमें डॉ. अम्बाशंकर नागर, आचार्य रघुनाथ भट्ट, भागवतप्रसाद मिश्र 'नियाज', भगवानदास जैन, किशोर काबरा, मालती दुबे आदि अनेकों नाम है और इसी ऊर्वरा भूमि पर एक संवेदनशील कवि भी अपनी अलग पहचान बना रहा है जिसका नाम है - यशंवत शर्मा। और हाल ही में हिन्दी साहित्य अकादमी के सहयोग से प्रकाशित उनकी कृति प्रकाशित हुई है जिसका नाम है - 'नित नयी दिवारें'। इसमें कवि ने इक्यावन कविताओं को पाठकों के समक्ष रखा है।संग्रह की सभी कविताएं छन्दमुक्त हैं, फिर भी उनकी लयबद्धता और संगीतात्मकता बनी हुई है। कवि ने अपने आस-पास के माहौल को ही कविताओं का विषय बनाया है। एक तरह यह आदमी के द्वारा, आदमी के लिए, आदमी के आदमी बने रहने पर जोर देने वाली कविता है। आज का आदमी प्रेम की प्यास लिए तड़फता ही रहता है तभी तो कवि अपनी कविता 'जिन्दा लाश' में लिखता है - भटक रहा है न जानेकिसकी तलाश में,बनकर रह गया हैजिन्दा लाश मैं'। पृष्ठ-56अपनी जीने की गहरी ललक को रेखांकित करती हुई कवि की कुछ पंक्तियां देखिए -औरों की तरहनकाब,चेहरे पर धर नहीं सकते।तो क्या इस दुनियां में,हम जी भी नहीं सकते?' पृष्ठ-9यूं तो कवि यशवंत शर्मा रोमांटिक मिजाज के कवि बिल्कुल नहीं प्रतीत होते, किन्तु फिर भी कहीं-कहीं अपने आपको रोक भी नहीं पाते हैं। तभी -मिले सफर में एक बार फिरअजनबी की तरह,न उन्होंने कुछ कहान इन्होंने कुछ सुनाबस नजरों नेनजरों सेबहुत कुछ बुना। पृष्ठ-46वैसे अपनी कविताओं अक्सर कवि यशंवत शर्मा समाज, देश व परिवार की चिन्ताओं से झूझते हुए दिखाई देते हैं। कहीं वे बहन के हाथ पीले करने की बात करते हैं तो कहीं रिश्तों को बचाने की, कहीं सांप्रदायिक दंगों की तो कहीं खोखले आदर्शो की।वास्तव में रचनाकार ने जो कुछ आस-पास देखा है उसे आहत मन अपने भावों को शब्दों के माध्यम से कविता में पेश करता है। रचनाकार के मन में बड़ा दर्द है और वह खोखले आदर्शो की पोल खोलना चहाता है। तभी तो वह लिखता है -एक खाई को पाटने के लिएअन्य खाइयों को कैसे खोदा जाता है।कविता संग्रह में एहसास, सहनशीलता, आप और हम, और मेरा जलना....?, याद, कर्मभूमि, ऊंचाई आसमान की, दिवारें, विरासत आदि अच्छी बन पड़ी है। लम्बी कविताओं की बजाय छोटी कविताएं ज्यादा सशक्त हैं। कवि का यह पहला काव्य संग्रह है जो उनमें छुपी हुई अंनत संभावनाओं से रू-ब-रू कराता प्रतीत होता है। पुस्तक की भूमिका डॉ. रामकुमार गुप्त ने लिखी है जो अपने आप में महत्वपूर्ण है।पुस्तक का मूल्य 45 रू. रखा गया है जो कि कम प्रतीत होता है। छपाई सुरुचिपूर्ण है। कवर पृष्ठ साधारण है। पुस्तक कवि ने स्वयं साहित्य आकादमी के सहयोग से प्रकाशित करवाई है। लेखक का पता : यशवन्त शर्मा 'यश', 152, आर्नेद वन ट्वीन्स, आर्नेदनगर, जाफराबाद, गोधरा

एक किसान की एक दिन अपने पड़ोसी से खूब जमकर लड़ाई हुई। बाद में जब उसे अपनी गलती का अहसास हुआ, तो उसे ख़ुद पर शर्म आई। वह इतना शर्मसार हुआ कि एक साधु के

एक किसान की एक दिन अपने पड़ोसी से खूब जमकर लड़ाई हुई। बाद में जब उसे अपनी गलती का अहसास हुआ, तो उसे ख़ुद पर शर्म आई। वह इतना शर्मसार हुआ कि एक साधु के पास पहुँचा और पूछा, ‘‘मैं अपनी गलती का प्रायश्चित करना चाहता हूँ।’’ साधु ने कहा कि पंखों से भरा एक थैला लाओ और उसे शहर के बीचों-बीच उड़ा दो। किसान ने ठीक वैसा ही किया, जैसा कि साधु ने उससे कहा था और फिर साधु के पास लौट आया। लौटने पर साधु ने उससे कहा, ‘‘अब जाओ और जितने भी पंख उड़े हैं उन्हें बटोर कर थैले में भर लाओ।’’ नादान किसान जब वैसा करने पहुँचा तो उसे मालूम हुआ कि यह काम मुश्किल नहीं बल्कि असंभव है। खैर, खाली थैला ले, वह वापस साधु के पास आ गया। यह देख साधु ने उससे कहा, ‘‘ऐसा ही मुँह से निकले शब्दों के साथ भी होता है।’’

समाधान

एक बूढा व्यक्ति था। उसकी दो बेटियां थीं। उनमें से एक का विवाह एक कुम्हार से हुआ और दूसरी का एक किसान के साथ।
एक बार पिता अपनी दोनों पुत्रियों से मिलने गया। पहली बेटी से हालचाल पूछा तो उसने कहा कि इस बार हमने बहुत परिश्रम किया है और बहुत सामान बनाया है। बस यदि वर्षा न आए तो हमारा कारोबार खूब चलेगा।
बेटी ने पिता से आग्रह किया कि वो भी प्रार्थना करे कि बारिश न हो।
फिर पिता दूसरी बेटी से मिला जिसका पति किसान था। उससे हालचाल पूछा तो उसने कहा कि इस बार बहुत परिश्रम किया है और बहुत फसल उगाई है परन्तु वर्षा नहीं हुई है। यदि अच्छी बरसात हो जाए तो खूब फसल होगी। उसने पिता से आग्रह किया कि वो प्रार्थना करे कि खूब बारिश हो।
एक बेटी का आग्रह था कि पिता वर्षा न होने की प्रार्थना करे और दूसरी का इसके विपरीत कि बरसात न हो। पिता बडी उलझन में पड गया। एक के लिए प्रार्थना करे तो दूसरी का नुक्सान। समाधान क्या हो ?
पिता ने बहुत सोचा और पुनः अपनी पुत्रियों से मिला। उसने बडी बेटी को समझाया कि यदि इस बार वर्षा नहीं हुई तो तुम अपने लाभ का आधा हिस्सा अपनी छोटी बहन को देना। और छोटी बेटी को मिलकर समझाया कि यदि इस बार खूब वर्षा हुई तो तुम अपने लाभ का आधा हिस्सा अपनी बडी बहन को देना।
कहानियाँ

उलझन

ए फॉर एप्पल, बी फॉर बैट’ एक देसी बच्चा अँग्रेजी पढ़ रहा था। यह पढ़ाई अपने देश भारत में पढ़ाई जा रही थी।
‘ए फार अर्जुन – बी फार बलराम’ एक भारतीय संस्था में एक भारतीय बच्चे को विदेश में अँग्रेजी पढ़ाई जा रही थी।
अपने देश में विदेशी ढंग से और विदेश में देसी ढंग से। अपने देश में, ‘ए फॉर अर्जुन, बी फॉर बलराम’ क्यों नहीं होता? मैं उलझन में पड़ गया।
मैं सोचने लगा अगर अँग्रेजी हमारी जरूरत ही है तो ‘ए फार अर्जुन – बी फार बलराम’ ही क्यों न पढ़ा जाए?

दुख का कारण

एक व्यापारी को नींद न आने की बीमारी थी। उसका नौकर मालिक की बीमारी से दुखी रहता था। एक दिन व्यापारी अपने नौकर को सारी संपत्ति देकर चल बसा। सम्पत्ति का मालिक बनने के बाद नौकर रात को सोने की कोशिश कर रहा था, किन्तु अब उसे नींद नहीं आ रही थी। एक रात जब वह सोने की कोशिश कर रहा था, उसने कुछ आहट सुनी। देखा, एक चोर घर का सारा सामान समेट कर उसे बांधने की कोशिश कर रहा था, परन्तु चादर छोटी होने के कारण गठरी बंध नहीं रही थी।
नौकर ने अपनी ओढ़ी हुई चादर चोर को दे दी और बोला, इसमें बांध लो। उसे जगा देखकर चोर सामान छोड़कर भागने लगा। किन्तु नौकर ने उसे रोककर हाथ जोड़कर कहा, भागो मत, इस सामान को ले जाओ ताकि मैं चैन से सो सकूँ। इसी ने मेरे मालिक की नींद उड़ा रखी थी और अब मेरी। उसकी बातें सुन चोर की भी आंखें खुल गईं।

बहुत बार ये प्रश्न सामने आते हैं कि हम स्वतंत्र है या परतंत्र? हम कर्म करने में स्वतंत्र हैं या परतंत्र? हम कर्म का फल भोगने में स्वतंत्र हैं या परतंत

बहुत बार ये प्रश्न सामने आते हैं कि हम स्वतंत्र है या परतंत्र? हम कर्म करने में स्वतंत्र हैं या परतंत्र? हम कर्म का फल भोगने में स्वतंत्र हैं या परतंत्र?स्वतंत्रता और परतंत्रता का निश्चित उत्तर नहीं दिया जा सकता। दोनों सापेक्ष कथन हैं। हम स्वतंत्र भी हैं और परतंत्र भी हैं। हम चैतन्यवान हैं। हमारा स्वभाव सभी द्रव्यों से विलक्षण है। किसी भी द्रव्य का स्वभाव चैतन्य नहीं है, हमारा स्वभाव चैतन्य है। इसीलिए हम स्वतंत्र हैं। किंतु चैतन्य का अनुभव जब-जब विस्मृत होता है, इस चैतन्य की आग पर कोई राख आ जाती है, तब-तब हम परतंत्र हो जाते हैं। स्वतंत्रता और परतंत्रता का उत्तर सापेक्ष-दृष्टि से ही दिया जा सकता है। इसका निरपेक्ष उत्तर नहीं हो सकता। हमने कोई क्रिया की, कर्म कि या। निश्चित है कि क्रिया की प्रतिक्रिया होगी। ऐसी एक भी क्रिया नहीं है जिसकी प्रतिक्रिया न हो। हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। क्रिया करने में आदमी स्वतंत्र होता है। किंतु प्रतिकिया में वह परतंत्र है। कडेण मूढो तं करेई - जो क्रिया है उससे मोह पैदा होता है। व्यक्ति मूढ हो जाता है और वह फिर उसे दोहराता है। एक बार आदमी कोई काम कर लेता है फिर उस काम को दोहराना जरूरी हो जाता है क्योंकि उसका संस्कार बन जाता है। उस संस्कार के आधार पर दूसरी बार परिस्थिति आने पर वैसा करने की प्रेरणा मिलती है। वह हमारी मानसिक आदत बन जाती है। फिर उसे दोहराने का मन होता है। व्यक्ति मूढ बनकर उस क्रिया को दोहराता जाता है, करता जाता है, तब हम परतंत्र हो गये। हमने कुछ किया, एक संस्कार निर्मित हो गया, एक आदत बन गयी, फिर वह करना ही पड़ेगा। यह परतंत्रता की बात है। हम परतंत्र हैं पर स्वतंत्र भी, इतना दृढ संकल्प हो जाए तो फिर संस्कार कितना ही प्रबल हो, हम उसे एक झटके में ही तोड़ सकते हैं। स्वतंत्रता और परतंत्रता दोनों को सापेक्ष दृष्टि से ही समझा जा सकता है। एक आदमी नारियल, खजूर या ताड़ के वृक्ष पर चढ़ गया। चढने में वह स्वतंत्र है। वह अपनी इच्छा से ऊपर चढ़ गया। अब उतरने में वह स्वतंत्र नहीं है। क्यों? चढ़ने की एक प्रक्रिया है। अब चढ ग़या तो उतरना ही पडेग़ा। चढ़ने का परिणाम है उतरना। उतरना कोई स्वतंत्र क्रिया नहीं है। मोहम्मद साहब के एक शिष्य का नाम था अली। उसने एक बार पूछा - ''हम काम करने में स्वतंत्र हैं या परतंत्र?'' मोहम्मद साहब ने कहा - ''अपने बाएं पैर को उठाओ।'' उसने अपना बायां पैर उपर उठा लिया। फिर मोहम्मद साहब ने कहा - ''अच्छा, अब अपने दाएं पैर को उठाओ।'' अली असमंजस में पड़ गया। बायां पैर पहले से ही उठाया हुआ है। अब दायां पैर ऊ पर कैसे उठाया जाए? उसने कहा - ''साहब! यह कैसे संभव हो सकता है कि दायां पैर उठा लूं?'' मोहम्मद साहब ने कहा - ''एक पैर उठाने में तुम स्वतंत्र हो, दूसरा पैर उठाने में स्वतंत्र नहीं हो, परतंत्र हो।''स्वतंत्रता और परतंत्रता दोनों सापेक्ष हैं। उन्हें निरपेक्ष समझना भूल है। आदमी अपने कर्तव्य में स्वतंत्र है। पर परिणाम भोगने में परतंत्र है। कर्तृत्व-काल में हम स्वतंत्र हैं, पर परिणाम-काल में हमें परतंत्र होना पड़ता है। विकास करने में हम स्वतंत्र हैं। हमारा जितना विकास होता है उसमें हमारा स्वतंत्र कर्तृत्व बोलता है। उसमें हम स्वतंत्र हैं। किसी भी कर्म के द्वारा हमारा विकास नहीं होता। कर्म के द्वारा हमारे विकास का अवरोध होता है। आप सोचेंगे कि शुभ नामकर्ता के द्वारा अच्छा फल मिलता है। अच्छा नाम होता है, पदार्थो की उपलब्धि होती है, यश मिलता है। यह कोई आत्मा का विकास नहीं है। ये सब पौद्गलिक जगत में घटित होने वाली घटनाएं हैं। इनसे आत्मा का विकास नहीं होता। आत्मा का स्वभाव है - चैतन्य। आत्मा का स्वभाव है - आनन्द। आत्मा का स्वभाव है - शक्ति। चैतन्य का विकास, आनन्द का विकास, शक्ति का विकास, किसी भी कर्म के उदय से नहीं होता। कर्म इन सब प्रकार के विकासों को रोकता है, बाधा डालता है, अवरोध उत्पन्न करता है। कोई भी पुद्गल विकास का मूल हेतु नहीं बनता। हमारे चैतन्य का विकास, हमारे आनन्द का विकास, हमारी शक्ति का विकास, हमारा पूर्ण जागरण इसलिए होता है कि हम स्वतंत्र हैं। हमारे स्वतंत्र होने का स्वयंभू प्रमाण है कि हमारा विकास होता है। हमारा विकास इसलिए होता है कि हम स्वतंत्र हैं। यदि हम स्वतंत्र नहीं होते तो यह विकास कभी नहीं होता। कर्मो के उदय से बाधाएं उपस्थित होती रहती हैं। हमारा विकास कभी नहीं होता। विकास इसलिए होता है कि हमारी स्वतंत्रता सत्ता है, हमारा स्वतंत्र उपादान है। मिट्टी घड़ा बनाती है। यह कोई कुंभकार की अंगुलियों का चमत्कार नहीं है। मिट्टी में घड़ा बनने का उपादान है। उसमें उपादान है तभी वह घड़ा बनाती है। इस निर्मिति में दूसरे-दूसरे अनेक निमित्त भी सहायक हो सकते हैं। परंतु मिट्टी का घडे के रूप में परिवर्तित होने का मूल है उपादान। उपादान को उत्पन्न नहीं किया जा सकता। दूसरे-दूसरे साधन सहायक-सामग्री बन सकती हैं परंतु वे सब मिलकर भी उपादान को उत्पन्न नहीं कर सकते। उपादान को उत्पन्न करने की शक्ति किसी में नहीं है। उपादान वही होता है जो द्रव्य का घटक होता है। कर्म में वह शक्ति नहीं है कि वह आत्मा में ज्ञान के पर्यायों को उत्पन्न कर सकें, चैतन्य के पर्यायों को उत्पन्न कर सके, आनन्द के पर्यायों को उत्पन्न कर सके, शक्ति के पर्यायों को उत्पन्न कर सके। कर्म यह कभी नहीं कर सकते, क्योंकि ये सब कर्म के स्वभाव नहीं हैं। चैतन्य, आनन्द और शक्ति ये आत्मा के उपादान हैं। इसलिए आत्मा ही उनका घटक है। आत्मा में ही यह शक्ति है कि वह अपने पर्यायों को उत्पन्न कर सकता है। वह अपने इन सब पर्यायों को उत्पन्न कर सकता है, इसलिए स्वतंत्र कर्तृत्व है। यह हमारे स्वतंत्र कर्तृत्व का पक्ष है।एक दूसरा पक्ष और है। आत्मा के साथ राग-द्वेष का परिणाम जुडा हुआ है। राग-द्वेष की धारा प्रवाहित है, इसलिए आत्मा के साथ परमाणुओं का संयोग होता है। वे परमाणु जुड़ते हैं, आत्मा को प्रभावित करते हैं। वे आत्मा के कार्य को प्रभावित करते हैं, आत्मा के कर्तृत्व को प्रभावित करते हैं। यह इसलिए होता है कि आत्मा के साथ शरीर का योग है। प्रभाव का आदि-बिंदु है - शरीर। आत्मा के साथ शरीर है, इसलिए हम परतंत्र हैं। हम स्वतंत्र कहां हैं? शरीर है इसलिए भोजन चाहिए। आत्मा को कभी भोजन की आवश्यकता ही नहीं है। शरीर है इसलिए भूख है, भूख है इसलिए भोजन है। भूख है इसलिए प्रवृत्ति का चक्र चलता है। यदि भूख न हो तो आदमी की सारी प्रवृत्तियां सिमट जाएं। एक भूख है, इसलिए आदमी को कुछ करना पड़ता है, नौकरी करनी पड़ती है, न जाने क्या-क्या करना पड़ता है। आदमी रोटी के लिए, पेट की आग बुझाने के लिए बहुत कुछ करता है, सब कुछ करता है। शरीर है, इसलिए काम-वासना है। शरीर का सारा चक्र काम के द्वारा संचालित होता है। एक प्राणी दूसरे प्राणी को पैदा करता है। यह पैदा करने वाली शक्ति है -काम। आहार की वृत्ति है, काम वासना की वृत्ति है, यह हमारी परतंत्रता है। इन सारी परतंत्रताओं में राग-द्वेष का चक्र चल रहा है। शुद्ध चैतन्य है, इसलिए हम स्वतंत्र हैं। राग-द्वेष-युक्त चैतन्य हैं, इसलिए हम परतंत्र हैं। चैतन्य की ज्योति सर्वथा लुप्त नहीं होती, इसलिए हमारी स्वतंत्रता की धारा भी सदा प्रवाहित रहती है। हम शरीर, कर्म और राग-द्वेष से बंधे हुए हैं, इसलिए हमारी परतंत्रता की धारा भी सतत प्रवाहित रहती है। हमारा व्यक्तित्व स्वतंत्रता और परतंत्रता का संगम है। उसे किसी एक ही पक्ष में नहीं बांटा जा सकता। उसे निखालिस सोना बनाया जा सकता है। सूर्य कितना ही प्रकाशवान् हो किंतु दिन और रात का भेद नहीं मिटाया जा सकता। कितने ही बादल छा जाएं, अंधकार छा जाए, वे सब सूर्य को ढक दें, पर दिन दिन रहेगा और रात रात। दिन और रात का भेद समाप्त नहीं किया जा सकता। स्वतंत्रता चलती है तो परतंत्रता भी चलती है। परतंत्रता चलती है तो स्वतंत्रता भी चलेगी। स्वतंत्रता का घटक है - शुद्ध चैतन्य और परतंत्रता का घटक है - राग-द्वेष युक्त चैतन्य।

आराम करो

एक मित्र मिले, बोले, "लाला, तुम किस चक्की का खाते हो?इस डेढ़ छटांक के राशन में भी तोंद बढ़ाए जाते हो।क्या रक्खा माँस बढ़ाने में, मनहूस, अक्ल से काम करो।संक्रान्ति-काल की बेला है, मर मिटो, जगत में नाम करो।"हम बोले, "रहने दो लेक्चर, पुरुषों को मत बदनाम करो।इस दौड़-धूप में क्या रक्खा, आराम करो, आराम करो।आराम ज़िन्दगी की कुंजी, इससे न तपेदिक होती है।आराम सुधा की एक बूंद, तन का दुबलापन खोती है।आराम शब्द में 'राम' छिपा जो भव-बंधन को खोता है।आराम शब्द का ज्ञाता तो विरला ही योगी होता है।इसलिए तुम्हें समझाता हूँ, मेरे अनुभव से काम करो।ये जीवन, यौवन क्षणभंगुर, आराम करो, आराम करो।यदि करना ही कुछ पड़ जाए तो अधिक न तुम उत्पात करो।अपने घर में बैठे-बैठे बस लंबी-लंबी बात करो।करने-धरने में क्या रक्खा जो रक्खा बात बनाने में।जो ओठ हिलाने में रस है, वह कभी न हाथ हिलाने में।तुम मुझसे पूछो बतलाऊँ, है मज़ा मूर्ख कहलाने में।जीवन-जागृति में क्या रक्खा जो रक्खा है सो जाने में।मैं यही सोचकर पास अक्ल के, कम ही जाया करता हूँ।जो बुद्धिमान जन होते हैं, उनसे कतराया करता हूँ।दीए जलने के पहले ही घर में आ जाया करता हूँ।जो मिलता है, खा लेता हूँ, चुपके सो जाया करता हूँ।मेरी गीता में लिखा हुआ, सच्चे योगी जो होते हैं,वे कम-से-कम बारह घंटे तो बेफ़िक्री से सोते हैं।अदवायन खिंची खाट में जो पड़ते ही आनंद आता है।वह सात स्वर्ग, अपवर्ग, मोक्ष से भी ऊँचा उठ जाता है।जब 'सुख की नींद' कढ़ा तकिया, इस सर के नीचे आता है,तो सच कहता हूँ इस सर में, इंजन जैसा लग जाता है।मैं मेल ट्रेन हो जाता हूँ, बुद्धि भी फक-फक करती है।भावों का रश हो जाता है, कविता सब उमड़ी पड़ती है।मैं औरों की तो नहीं, बात पहले अपनी ही लेता हूँ।मैं पड़ा खाट पर बूटों को ऊँटों की उपमा देता हूँ।मैं खटरागी हूँ मुझको तो खटिया में गीत फूटते हैं।छत की कड़ियाँ गिनते-गिनते छंदों के बंध टूटते हैं।मैं इसीलिए तो कहता हूँ मेरे अनुभव से काम करो।यह खाट बिछा लो आँगन में, लेटो, बैठो, आराम करो।

दूरदर्शी

एक आदमी सोना तोलने के लिए सुनार के पास तराजू मांगने आया। सुनार ने कहा, ‘‘मियाँ, अपना रास्ता लो। मेरे पास छलनी नहीं है।’’ उसने कहा, ‘‘मजाक न कर, भाई, मुझे तराजू चाहिए।’’सुनार ने कहा, ‘‘मेरी दुकान में झाडू नहीं हैं।’’ उसने कहा, ‘‘मसखरी को छोड़, मै तराजू मांगने आया हूँ, वह दे दे और बहरा बन कर ऊटपटांग बातें न कर।’’सुनार ने जवाब दिया, ‘‘हजरत, मैंने तुम्हारी बात सुन ली थी, मैं बहरा नहीं हूँ। तुम यह न समझो कि मैं गोलमाल कर रहा हूँ। तुम बूढ़े आदमी सुखकर काँटा हो रहे हो। सारा शरीर काँपता हैं। तुम्हारा सोना भी कुछ बुरादा है और कुछ चूरा है। इसलिए तौलते समय तुम्हारा हाथ काँपेगा और सोना गिर पड़ेगा तो तुम फिर आओगे कि भाई, जरा झाड़ू तो देना ताकि मैं सोना इकट्ठा कर लूं और जब बुहार कर मिट्टी और सोना इकट्ठा कर लोगे तो फिर कहोगे कि मुझे छलनी चाहिए, ताकि ख़ाक को छानकर सोना अलग कर सको। हमारी दुकान में छलनी कहां? मैंने पहले ही तुम्हारे काम के अन्तिम परिणाम को देखकर दूरदर्शिता से कहा था कि तुम कहीं दूसरी जगह से तराजू मांग लो।’’
जो मनुष्य केवल काम के प्रारम्भ को देखता है, वह अन्धा है। जो परिणाम को ध्यान में रखे, वह बुद्धिमान है। जो मनुष्य आगे होने वाली बात को पहले ही से सोच लेता है, उसे अन्त में लज्जित नहीं होना पड़ता।

भाई हो तो कैसा?

मिलहिं न जगत सहोदर भ्राता। जब लक्ष्मण को शक्ति लगी तब श्रीराम के हृदय से यही उद्गार गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहलवाये थे। आज के समय में ये कितने सामयिक हैं, आइए विवेचना करते हैं, सोचते हैं। भाई एक संबंध है। भाई एक सहारा होता है। भाई एक ध्वनि है, भाई एक वाद है एक शक्ति है, पर भाई दुर्बलता भी है। हमारे गुजरात में 'भाई केम छो' में जो मिठास है, अपनापन है, आत्मीयता है तो बंबई का टपोरीपन 'भाई क्या करेला है' एकदम अलग रंग, भाषा। बंबई का भाई वास्तव में भाई होता है। भाई बोले तो बिना डिग्री के 'एम बी बी एस'। भाई और भैया अलग-अलग धु्रव होते हैं। पर जो बात भाई में है वो ब्रदर, बिरादर या भैया में नहीं है। भाई होते थे, भाई होते हैं, भाई होते रहेंगे। परेशभाई अगर गुजरात की मुस्कान बिखेर सकते हैं तो बशीरभाई चाहे जिस प्रांत के हों खौफ भी पैदा कर सकते हैं। अपवाद तो हर जगह हैं। श्रीराम ने उच्च आचरण, अनुपम, अतुलनीय, ऊंचे आदर्श स्थापित कर दिये और चल दिये वन को। एक भाई भी साथ चल दिया वन को। और जो भाई न जा सका वो उनकी पादुका लेकर ही राज्य चलाने लगा। सत्ता संपत्ति के लिए भाई से भाई भिड़े नहीं।उसी काल में दशानन का भाई था धर्मपरायण और निष्ठावान। अपहरण को गलत कहा औैर भाई को छोड़ दिया। नतीजा सोने की लंका जल गयी। सुग्रीव, बाली भी भाई थे। इतिहास गवाह है, शाहजहां ने भाइयों को मारकर ही राज किया और क्या इतिहास औरंगजेब औैर दाराशिकोह को भूल सकता है। फिर इतिहास कौरव और पांडवों को कैसे भूल पायेगा। भाई-भाई के संबंधों को भारतीय सिनेमा में भी खूब बखाना गया। एक भाई वेरी गुड दूसरा भाई वेरी बेड। दो भाई अच्छे हो ही नहीं सकते, कहानी कहां बनेगी। 'उपकार' में मनोज कुमार औैर प्रेम चोपड़ा, 'गंगा-जमुना' दिलीप कुमार और नासिर खान 'मदर-इंडिया' में सुनील दत्त और राजेन्द्र कुमार। फिल्म दीवार में एक भाई जो वेरी गुड है, चीखता है 'भाई तुम साइन करोगे कि नहीं?' वेरी बेड भाई शांति से कहता है 'डेम टू साइन'। एक के पास दौलत है और दूसरे के पास है 'मां'। अंत में एक भाई दूसरे को मार ही देता है, आखिर भाई जो था। भाई की पत्नी भाभी कहलाती है। भाई के बच्चे भतीजे होते हैं। तभी शायद भाई के साथ भाई-भतीजावाद कहा जाता है। हालांकि राजनीति के मंच पर प्रजावाद या पुत्रीवाद की फसल लहलहा रही है पर बदनाम होता है भाई-भतीजावाद। भाई के साथ आदरसूचक जी या साहब लगाने का भी रिवाज है। वह भाईजी या भाई साहब सौम्य सुसंस्कृत होकर सभ्य होते हैं। खाली भाई ही भाई निकलता है। भाई की अनेक श्रेणियां हैं। रामायण में भरत का चरित्र सुनकर आंसू बहाने वाले भी व्यक्तिगत जीवन में सहोदर भाई से फौजदारी, जमीन का मुकदमा लड़ते पाये जाते हैं। ये श्रद्धालु भाई होते हैं। ये दयालु भी भाई होते हैं पर उनकी कृपा प्राय: भारी पड़ती है। अभी कुछ समय पहले की बात है। तीन भाई थे, चार भी होते तो क्या था? छोटे भाई ने अपने बड़े भाई के शरीर में तीन गोलियां उतार दी। जिस भाई ने उसे पाला, इात दिलाई, उसी का शरीर छलनी कर दिया। भाई का नाम और काम सार्थक हो गया। भाई ही भाई के खून का प्यासा! भाई से सावधान रहें। अब, शायद इसीलिए आज से पचास वर्र्ष पूर्व कवि शैलेंद्र लिख गये -ये लूट खसोट ए डाकाजनीभाई की भाई से न बनी, उस देश में यह भी होता हैजिस देश मेें गंगा बहती है। ईश्वर भाई की भूमिका की रक्षा करे। काश! आज भी कोई तुलसी आकर कह जाये - 'मिलहिं न जगत सहोदर भ्राता

जिन्दा मछली

माधुरी को मैं प्यार से मधुरा कहता। वह बहुत ही मीठा बोलती। मेरे दोस्त फोन पर उसकी आवाज सुनने के बाद किसी न किसी बहाने मेरे घर आना चाहते। वह चहकती रहती, सब उससे खुश रहते। लोगों की खुशी देखकर मुझे अच्छा लगता। स्त्री का यह रूप मुझे एक्वेरियम की उस रंगीन मछली सा लगता, जो पल भर को सब दु:ख भुला देती है। उसे यू.एस.ए. गये तीन वर्ष बीत गये हैं। उसने सायकोलॉजी में एम.ए. किया था। उसकी मधुर आवाज के कारन उसे वहां काऊन्सिलर की नौकरी मिल गई। उसके जाने के बाद मैं बहुत अकेला हो गया था।वह जब यहां थी, अक्सर शाम को हम मिसीस चावला के यहां जाया करते। उनके पति देर से घर आते। 11 बजे तक या फिर रात को न भी आते। हम तीनों कॉफी पीते, देर रात तक बैठते। मैं उन्हें पसंद करता था। यह बात वो भी जानती थी और मधुरा भी। एक शाम मैं उनके घर चला गया। कॉफी भी पी लेकिन वो बात नहीं थी। मेरा अकेला आना शायद उन्हें पसंद नहीं आया। अब तो वे बचने लगीं, रास्ते में मिलती तो भी हाय-हलो तक नहीं करती। मौसम से मजबूर होकर एक नदी ठहर गई थी। मछलियां बर्फ हो चुकी थीं।मैं रेड लाईट एरिया पर रिसर्च कर रहा था। मैं हमेशा मधुरा को वहां साथ ले जाता। उसके रहते उन स्त्रियों को समझने में मुझे आसानी रहती। हम दोनों हर संभव उनके विकास के लिए प्रोजेक्ट बनाते। मेरा रिसर्च वर्क पूरा होने को था। शायद यह मेरी वहां की अंतिम मुलाकात थी। उस रात मैं वहां से काफी देर से घर लौटा। वह एक अकस्मात था जिसके बारे में मैनें कभी सोचा भी नहीं था। मुझे अपने आप से नफरत होने लगी। अब कभी वहां न जाने की कसम खा ली। कुछ दिनों से मेरी तबीयत खराब रहने लगी थी, एक अनजान भय ने घेर लिया। आज अस्पताल के बाहर बैठा पिछले तीन साल का लेखा जोखा लेता हूं। हर पल वह टूटन, वह अकेलापन, पल भर के प्यार की एक तड़प मुझे अपने गलत न होने का अहसास दिलाती है।अचानक नर्स ने दरवाजा खोला, 'डाक्टर साहब बुला रहे हैं।' मैं अन्दर जाता हूं। 'एच.आई.वी. टेस्ट नेगेटिव है।' मेरी आंखें खुशी से भर जाती हैं। मैं मधुरा को मैसेज करता हूं। 'आई एम नोट वैल, कम सून'।