Friday, April 18, 2008

बहुत बार ये प्रश्न सामने आते हैं कि हम स्वतंत्र है या परतंत्र? हम कर्म करने में स्वतंत्र हैं या परतंत्र? हम कर्म का फल भोगने में स्वतंत्र हैं या परतंत

बहुत बार ये प्रश्न सामने आते हैं कि हम स्वतंत्र है या परतंत्र? हम कर्म करने में स्वतंत्र हैं या परतंत्र? हम कर्म का फल भोगने में स्वतंत्र हैं या परतंत्र?स्वतंत्रता और परतंत्रता का निश्चित उत्तर नहीं दिया जा सकता। दोनों सापेक्ष कथन हैं। हम स्वतंत्र भी हैं और परतंत्र भी हैं। हम चैतन्यवान हैं। हमारा स्वभाव सभी द्रव्यों से विलक्षण है। किसी भी द्रव्य का स्वभाव चैतन्य नहीं है, हमारा स्वभाव चैतन्य है। इसीलिए हम स्वतंत्र हैं। किंतु चैतन्य का अनुभव जब-जब विस्मृत होता है, इस चैतन्य की आग पर कोई राख आ जाती है, तब-तब हम परतंत्र हो जाते हैं। स्वतंत्रता और परतंत्रता का उत्तर सापेक्ष-दृष्टि से ही दिया जा सकता है। इसका निरपेक्ष उत्तर नहीं हो सकता। हमने कोई क्रिया की, कर्म कि या। निश्चित है कि क्रिया की प्रतिक्रिया होगी। ऐसी एक भी क्रिया नहीं है जिसकी प्रतिक्रिया न हो। हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। क्रिया करने में आदमी स्वतंत्र होता है। किंतु प्रतिकिया में वह परतंत्र है। कडेण मूढो तं करेई - जो क्रिया है उससे मोह पैदा होता है। व्यक्ति मूढ हो जाता है और वह फिर उसे दोहराता है। एक बार आदमी कोई काम कर लेता है फिर उस काम को दोहराना जरूरी हो जाता है क्योंकि उसका संस्कार बन जाता है। उस संस्कार के आधार पर दूसरी बार परिस्थिति आने पर वैसा करने की प्रेरणा मिलती है। वह हमारी मानसिक आदत बन जाती है। फिर उसे दोहराने का मन होता है। व्यक्ति मूढ बनकर उस क्रिया को दोहराता जाता है, करता जाता है, तब हम परतंत्र हो गये। हमने कुछ किया, एक संस्कार निर्मित हो गया, एक आदत बन गयी, फिर वह करना ही पड़ेगा। यह परतंत्रता की बात है। हम परतंत्र हैं पर स्वतंत्र भी, इतना दृढ संकल्प हो जाए तो फिर संस्कार कितना ही प्रबल हो, हम उसे एक झटके में ही तोड़ सकते हैं। स्वतंत्रता और परतंत्रता दोनों को सापेक्ष दृष्टि से ही समझा जा सकता है। एक आदमी नारियल, खजूर या ताड़ के वृक्ष पर चढ़ गया। चढने में वह स्वतंत्र है। वह अपनी इच्छा से ऊपर चढ़ गया। अब उतरने में वह स्वतंत्र नहीं है। क्यों? चढ़ने की एक प्रक्रिया है। अब चढ ग़या तो उतरना ही पडेग़ा। चढ़ने का परिणाम है उतरना। उतरना कोई स्वतंत्र क्रिया नहीं है। मोहम्मद साहब के एक शिष्य का नाम था अली। उसने एक बार पूछा - ''हम काम करने में स्वतंत्र हैं या परतंत्र?'' मोहम्मद साहब ने कहा - ''अपने बाएं पैर को उठाओ।'' उसने अपना बायां पैर उपर उठा लिया। फिर मोहम्मद साहब ने कहा - ''अच्छा, अब अपने दाएं पैर को उठाओ।'' अली असमंजस में पड़ गया। बायां पैर पहले से ही उठाया हुआ है। अब दायां पैर ऊ पर कैसे उठाया जाए? उसने कहा - ''साहब! यह कैसे संभव हो सकता है कि दायां पैर उठा लूं?'' मोहम्मद साहब ने कहा - ''एक पैर उठाने में तुम स्वतंत्र हो, दूसरा पैर उठाने में स्वतंत्र नहीं हो, परतंत्र हो।''स्वतंत्रता और परतंत्रता दोनों सापेक्ष हैं। उन्हें निरपेक्ष समझना भूल है। आदमी अपने कर्तव्य में स्वतंत्र है। पर परिणाम भोगने में परतंत्र है। कर्तृत्व-काल में हम स्वतंत्र हैं, पर परिणाम-काल में हमें परतंत्र होना पड़ता है। विकास करने में हम स्वतंत्र हैं। हमारा जितना विकास होता है उसमें हमारा स्वतंत्र कर्तृत्व बोलता है। उसमें हम स्वतंत्र हैं। किसी भी कर्म के द्वारा हमारा विकास नहीं होता। कर्म के द्वारा हमारे विकास का अवरोध होता है। आप सोचेंगे कि शुभ नामकर्ता के द्वारा अच्छा फल मिलता है। अच्छा नाम होता है, पदार्थो की उपलब्धि होती है, यश मिलता है। यह कोई आत्मा का विकास नहीं है। ये सब पौद्गलिक जगत में घटित होने वाली घटनाएं हैं। इनसे आत्मा का विकास नहीं होता। आत्मा का स्वभाव है - चैतन्य। आत्मा का स्वभाव है - आनन्द। आत्मा का स्वभाव है - शक्ति। चैतन्य का विकास, आनन्द का विकास, शक्ति का विकास, किसी भी कर्म के उदय से नहीं होता। कर्म इन सब प्रकार के विकासों को रोकता है, बाधा डालता है, अवरोध उत्पन्न करता है। कोई भी पुद्गल विकास का मूल हेतु नहीं बनता। हमारे चैतन्य का विकास, हमारे आनन्द का विकास, हमारी शक्ति का विकास, हमारा पूर्ण जागरण इसलिए होता है कि हम स्वतंत्र हैं। हमारे स्वतंत्र होने का स्वयंभू प्रमाण है कि हमारा विकास होता है। हमारा विकास इसलिए होता है कि हम स्वतंत्र हैं। यदि हम स्वतंत्र नहीं होते तो यह विकास कभी नहीं होता। कर्मो के उदय से बाधाएं उपस्थित होती रहती हैं। हमारा विकास कभी नहीं होता। विकास इसलिए होता है कि हमारी स्वतंत्रता सत्ता है, हमारा स्वतंत्र उपादान है। मिट्टी घड़ा बनाती है। यह कोई कुंभकार की अंगुलियों का चमत्कार नहीं है। मिट्टी में घड़ा बनने का उपादान है। उसमें उपादान है तभी वह घड़ा बनाती है। इस निर्मिति में दूसरे-दूसरे अनेक निमित्त भी सहायक हो सकते हैं। परंतु मिट्टी का घडे के रूप में परिवर्तित होने का मूल है उपादान। उपादान को उत्पन्न नहीं किया जा सकता। दूसरे-दूसरे साधन सहायक-सामग्री बन सकती हैं परंतु वे सब मिलकर भी उपादान को उत्पन्न नहीं कर सकते। उपादान को उत्पन्न करने की शक्ति किसी में नहीं है। उपादान वही होता है जो द्रव्य का घटक होता है। कर्म में वह शक्ति नहीं है कि वह आत्मा में ज्ञान के पर्यायों को उत्पन्न कर सकें, चैतन्य के पर्यायों को उत्पन्न कर सके, आनन्द के पर्यायों को उत्पन्न कर सके, शक्ति के पर्यायों को उत्पन्न कर सके। कर्म यह कभी नहीं कर सकते, क्योंकि ये सब कर्म के स्वभाव नहीं हैं। चैतन्य, आनन्द और शक्ति ये आत्मा के उपादान हैं। इसलिए आत्मा ही उनका घटक है। आत्मा में ही यह शक्ति है कि वह अपने पर्यायों को उत्पन्न कर सकता है। वह अपने इन सब पर्यायों को उत्पन्न कर सकता है, इसलिए स्वतंत्र कर्तृत्व है। यह हमारे स्वतंत्र कर्तृत्व का पक्ष है।एक दूसरा पक्ष और है। आत्मा के साथ राग-द्वेष का परिणाम जुडा हुआ है। राग-द्वेष की धारा प्रवाहित है, इसलिए आत्मा के साथ परमाणुओं का संयोग होता है। वे परमाणु जुड़ते हैं, आत्मा को प्रभावित करते हैं। वे आत्मा के कार्य को प्रभावित करते हैं, आत्मा के कर्तृत्व को प्रभावित करते हैं। यह इसलिए होता है कि आत्मा के साथ शरीर का योग है। प्रभाव का आदि-बिंदु है - शरीर। आत्मा के साथ शरीर है, इसलिए हम परतंत्र हैं। हम स्वतंत्र कहां हैं? शरीर है इसलिए भोजन चाहिए। आत्मा को कभी भोजन की आवश्यकता ही नहीं है। शरीर है इसलिए भूख है, भूख है इसलिए भोजन है। भूख है इसलिए प्रवृत्ति का चक्र चलता है। यदि भूख न हो तो आदमी की सारी प्रवृत्तियां सिमट जाएं। एक भूख है, इसलिए आदमी को कुछ करना पड़ता है, नौकरी करनी पड़ती है, न जाने क्या-क्या करना पड़ता है। आदमी रोटी के लिए, पेट की आग बुझाने के लिए बहुत कुछ करता है, सब कुछ करता है। शरीर है, इसलिए काम-वासना है। शरीर का सारा चक्र काम के द्वारा संचालित होता है। एक प्राणी दूसरे प्राणी को पैदा करता है। यह पैदा करने वाली शक्ति है -काम। आहार की वृत्ति है, काम वासना की वृत्ति है, यह हमारी परतंत्रता है। इन सारी परतंत्रताओं में राग-द्वेष का चक्र चल रहा है। शुद्ध चैतन्य है, इसलिए हम स्वतंत्र हैं। राग-द्वेष-युक्त चैतन्य हैं, इसलिए हम परतंत्र हैं। चैतन्य की ज्योति सर्वथा लुप्त नहीं होती, इसलिए हमारी स्वतंत्रता की धारा भी सदा प्रवाहित रहती है। हम शरीर, कर्म और राग-द्वेष से बंधे हुए हैं, इसलिए हमारी परतंत्रता की धारा भी सतत प्रवाहित रहती है। हमारा व्यक्तित्व स्वतंत्रता और परतंत्रता का संगम है। उसे किसी एक ही पक्ष में नहीं बांटा जा सकता। उसे निखालिस सोना बनाया जा सकता है। सूर्य कितना ही प्रकाशवान् हो किंतु दिन और रात का भेद नहीं मिटाया जा सकता। कितने ही बादल छा जाएं, अंधकार छा जाए, वे सब सूर्य को ढक दें, पर दिन दिन रहेगा और रात रात। दिन और रात का भेद समाप्त नहीं किया जा सकता। स्वतंत्रता चलती है तो परतंत्रता भी चलती है। परतंत्रता चलती है तो स्वतंत्रता भी चलेगी। स्वतंत्रता का घटक है - शुद्ध चैतन्य और परतंत्रता का घटक है - राग-द्वेष युक्त चैतन्य।

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