Saturday, April 19, 2008

पत्र से मोबाईल तक

पत्र लिखने का चलन बड़ा पुराना है। पत्र को 'आधा मिलन' कहा गया है। लेकिन जब से सूचना प्रौद्योगिकी का युग आया है, पत्र-लेखन का संफाया होता जा रहा है। अब तो टेलीफोन और मोबाईल का जादू आदमी के सिर पर चढ़कर बोल रहा है। लोग पत्र लिखने से जी चुराने लगे हैं।छोटों द्वारा सहर्ष चरण-स्पर्श, बहिना का प्यार, ननदी के उलाहने, भाभी की नसीहत, हास-परिहास, मैत्री-भाव की बौछार, ज्ञान-उपदेश, मंगल-कामना संदेश, मीठी-मीठी रस भरी बतियां, उनकी स्मृतियां, शिकवे-गिले, दो दिलों के बीच बनी प्रीति के सिलसिले। कितना कुछ होता था रिश्तों की सुगन्ध से महकते-चहकते इन पत्रों में!अब तो वह समूचा रस-सागर ही सूखता जा रहा है। पत्र होंगे ही नहीं, तो कौन उन्हें बड़े जतन से संभाल कर धरेगा? कौन उन्हें बार-बार पढ़कर यादों को तरोतांजा करेगा? अब किसी बेवफा के प्रेम-पत्रों को न आग में जलाने की जरूरत पड़ेगी, न नदी में बहाने की।मरने के बाद, किसी के घर से अब चन्द हसीनों के खतूत तो निकलने से रहे। कोई झूठ-मूठ भले ही कहे। बड़े-बड़े लेखकों, कवियों और प्रेमी-प्रेमिकाओं के लिखे पत्र अमूल्य धरोहर बन गए। वे पत्र हजारों लाखों डालरों में नीलाम हुए। अब क्या होगा? न नाम, न दाम। पूर्ण विराम।इस हाईटेक ंजमाने में कौन कमबख्त पत्र लिखने-लिखाने के झंझट में पड़े, कांगंज-कलम ढूंढता फिरे, सोचने-विचारने में समय बर्बाद करे, भावों को सहेजे-समेटे, रच-पच कर लिखे, ताकि पत्र सुन्दर दिखे और फिर उसे लैटर बॉक्स में डालने की जहमत उठाए या खुशामद करके किसी से डलवाए। लैटर-बॉक्स भी तो डाक-विभाग का लैटर-बॉक्स है। समय पर खुला न खुला।प्रेमी-प्रेमिकाओं द्वारा चोरी-छुपे पत्र-लिखकर उसे कंकड़ में लपेट कर फेंकने, धोबी के कपड़ों की तह में रख कर भेजने, किताबों-कापियों में घर तक देने, या टॉफी-चॉकलेट खिला कर पटाए गए किसी बच्चे के हाथ पहुंचाने और मंगवाने में जो एक थ्रिल था, रोमांच था, वह भी हवा हुआ।पत्र पाने का कितनी बे सब्री से इन्तंजार रहता था। उस इन्तंजार में कितना मंजा था। 'हलो-हलो' के कारण अब वह भी हिलने लगा है। बिल्कुल दम तोड़ने के कगार पर है।पत्रों में मिलने की उत्कण्ठा बसी रहती थी और व्यक्ति को आने के लिए कहती थी। अब तो फोन पर बातें बना लेना ही कांफी है। मिलने जुलने की, खिलने-खुलने की आवश्यकता नहीं रही।आप घर में हों या दफ्तर में, मोटर साइकिल पर सवार हों या कार में, जरूरी मीटिंग में हों या ईटिंग में, किसी भरी सभा में हों अथवा शोकसभा में, हर जगह मोबाईल फोन। तरह-तरह की एक से एक बढ़िया फिल्मी गीतों की टोन। सुनते ही लगाएं कान और मुंह पर। करें फटाफट ठाट से बातें ही बातें।मोबाईल के जरिए अब बड़ी आसानी से झूठ बोला जा सकता है। बॉस और बीवी-बच्चों की डॉट से बचा जा सकता है कि रास्ते में हैं। भारी ट्रैफिक में फंस गए हैं। बस, सुनवा दीजिए बॉस को बैकग्राउण्ड टोन में बजते हार्न और गाड़ियों की आवांजें। भले ही आप अपनी नई प्रेमिका के साथ कहीं प्यार की पींगे बढ़ा रहे हों, उस पर अपना रंग चढ़ा रहे हों, पर मोबाईल पर पत्नी को बताइए कि आप कारखाने में डयूटी पर ही हैं। आपके कहने के साथ जब मोबाईल की बैकग्राउण्ड टोन चलती हुई मशीनों की आवांज सुनाएगी, तो निश्चित रूप से आपकी बात सच मानी जाएगी।अब तो मोबाईल फोन में लगे कैमरे से किसी के भी, किसी भी समय, कैसे भी फोटो चुपचाप उतारे जा सकते हैं और वे मोबाईल के द्वारा दूसरों तक पहुंचाए जा सकते हैं। मनोरंजन और धन्धा दोनों एक साथ। आम के आम गुठलियों के दाम।आपके मोबाईल से दूसरे लोग डिस्टर्ब हों, तो हों। आप क्यों चिन्ता करें? मोबाईल की वजह से आप अन्य लोगों की निगाह में तो आए। आपका स्टेटस तो बढ़ा। कान पर मोबाईल लगाए घूमना अब शान की निशानी मानी जाती है।आजकल जो व्यक्ति मोबाईल-फोन नहीं रखता, उसे हद दर्जे का कंजूस और बैकवर्ड समझा जाता है और हिकारत की नंजर से देखा जाता है। लोग बार-बार उससे उसका फोन या मोबाईल नंबर पूछ कर उसमें हीन भावना जगाना तथा उसे लाा का एहसास कराना अपना परमर् कत्तव्य मानते हैं।डाकखाने वाले अब पत्रों के भारी-भारी थैलों से जल्दी ही छुटकारा पाएंगे। बेचारे डाकवाले अब 'डाक के डाकू' कहलाने के आरोप से भी बच जाएंगे। डाकिए अब पत्रों के बजाय घर-घर जाकर मोबाईल पर संदेशा सुनवाएंगे और हाथों-हाथ उनके जवाब भिजवाएंगे। तुरंत दान, महा कल्याण। प्रेमियों के लिए भी अब पत्र के इंतजार की घड़ियां और आंसू की झड़ियां खत्म। मोबाईल की फुल- झड़ियां जो हैं।आज के लड़के सगाई होते ही लड़की से बातें करते रहने की गरज से या तो खुद ही, या अपनी मामी-भाभी वगैरह को पटा कर लड़की को भेंट के रूप में मोबाईल थमाने लगे हैं। भूल कर भी अब पत्र लिखने के लिए नहीं कहा जाता। वे ंजमाने गए।वह समय दूर नहीं, जब सामान्यत: पत्रों का घोर अकाल नंजर आएगा। प्रार्थना-पत्रों और व्यापारिक पत्रों ने 'ई-मेल' तथा 'फैक्स' से नाता जोड़ लिया है। लोगों ने शिकायती पत्रों को तो लिखना ही छोड़ दिया है। ठीक ही किया है। क्या फायदा उन्हें लिखने का? उन पर कोई कारवाही तो होती नहीं, सिंर्फ लीपा-पोती हो कर रह जाती है। किससे कहें? नीचे से ऊपर तक सब के सब एक ही रंग में रंगे हुए। जैसे नागनाथ वैसे सांपनाथ।अब पत्रों के रूप में लोग बस 'संपादक के नाम पत्र' ही लिखा करेंगे जो पत्र-पत्रिकाओं में प्रमुखता से स्थान पाएंगे। उन पत्रों में संपादक को खुश करने के लिए उनके अद्भूत संपादन-कौशल की भूरि-भूरि प्रशंसा होगी और केवल अपनी फेंटी के रचनाकारों की हवाई तारींफ के पुल बांधे जाएंगे।

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