Saturday, April 19, 2008
पत्र से मोबाईल तक
रोचक
मैं पीएच.डी. हो गया हूं !
पीएच.डी. की उपाधि पिछले सात-आठ सालों से अध्यापक कुछ ज्यादा ऐंठने लगे हैं। सरकार को उस ज्यादती का पता चला तो वह सोचने लगी -'हर फेकल्टी मेें अध्यापक इस तरह पीएच.डी. हो रहे हैं, जैसे जमीन की दर से निकलती धड़ा-धड चींटियां।'सरकार ने फौरन आकस्मिक सर्व-दलीय बैठक बुलायी और इस गंभीर विषय पर चर्चा हुई। निर्णय लिया गया कि एक 'सत्य शोधक समिति' बनायी जाए, और एक महीने बाद रिपोर्ट तैयार की जाए। एक महीने के बाद सत्य शोधक समिति ने यह सत्य जान लिया कि अधिक पीएच.डी. होने का अहम कारण सरकार की ओर से मिलने वाले दो ईजाफेहैं। सरकार ने शीघ्र निर्णय लिया कि 'सरकार की ओर से मिलने वाले दो ईजाफे बंद किये जाएं और जिन्होंने दो ईजाफे लिये हैं उनसे वापस लिये जाएं।'सरकार की इस खबर से सारे अध्यापक आलम में खलबली मच गयी। सरकार को मानो ऐसा लग रहा है कि जैसे अध्यापक मात्र दो ईजाफ ो के लिए पीएच.डी. करते हों। वैसे भी, समाज के अधिक व्यक्ति, अध्यापक की अधिक आय को लेकर बहुत दु:खी हैं। कहते हैं, ''दो घंटे पढ़ाते हैं और महीने में तीस हजार पाते हैं।'' सरकार ने यह भी सूचना दी कि पीएच.डी. का स्तर सुधारा जाए। उसका विषय मानव जीवन से संबंधित होना चाहिए। कुछ भी हो मगर अब पीएच.डी. करने वालों की खैर नहीं। अध्यापक मंडलों की स्थिति भी दो ईजाफों जैसी हो गयी है। जो हड़ताल पर उतरे थे उन अध्यापकों के बढाेत्तरी के स्केल सरकारी दफ्तरों में अटके हुये हैं। बेचारों की दयनीय स्थिति है। खैर, यह सब बातें जाने दो, लेकिन यह बात जरूर है कि शिक्षा विभाग में, सरकार क्रांतिकारी तब्दीलियां ला रही है। आज इसी सिलसिले मेें मैं बात करने जा रहा हूं मेरे मित्र शंकरलाल की, आज विज्ञान विभाग में सीनियर अध्यापक के रूप में कार्यरत हैं। मेरे मित्र शंकरलाल ने मात्र पीएच.डी के दो ईजाफे लिये हैं। पीएच.डी. करने का बीड़ा उठाया था। लेकिन हाल ही में सरकार ने जो इजाफे बंद किये उसके वे शिकार हो गये। वे रोता हुआ चेहरा लेकर मेरे पास आये और बोले -''यार, मेरी पीएच.डी. की उपाधि का कोई मतलब नहीं रहा। बहुत पैसे बिगाड़े, पर उगे नहीं।''मैंने कहा - ''मैं कुछ समझा नहीं। शंकर, तू कहना क्या चाहता है?''वह बोला - ''जिसके लिए हमने उपाधि ली वह मकसद पूरा नहीं हुआ।''मैंने कहा - ''यार, मैंने भी अभी-अभी पीएच.डी. की लेकिन मुझे तो बहुत फायदा हुआ।''''क्या तुम्हें दो ईजाफे मिल गये?''''ना भाई ''''तो कैसा फायदा?''मैंने कहा - ''मैंने जिस लेखक पर काम किया, उनकी सभी रचनाओं से परिचित हुआ, और सबसे बड़ी बात यह है कि उस लेखक का सारा रचना संसार पढ़कर आज मैं व्यंग्य लेखक बन गया हूं।'' ''वह क्या होता है?''''यार, तुम्हारे साइंस में नहीं होता।'' ''किसमें होता है?''''कवि-लेखक जो साहित्य लिखते हैं, उसमें होता है।'' इतना समझाने के बाद भी मेरा मित्र कुछ उलझन में था। मैंने पूछा - ''अब किस बात की चिंता है?''वह बोला - ''यार, पीएच.डी. न करता तो अच्छा होता, कम से कम मेरा किया खर्च तो बच जाता। अगर उस रूपये को शेयर मार्केट में डाल देता तो अच्छा होता। यहां तो कोई लाभ नहीं....।'' मैंने कहा - ''अभी भी एक लाभ है।''हंसमुखा चेहरा बनाकर बोला - ''जल्दी बता दे मेरे यार।''मैंने कहा - ''कोई अच्छी कॉलेज में प्रिंसिपल बन जाओ।''आचार्य के लिए पीएच.डी. की उपाधि होना जरूरी है।वह बोला - ''हां यार, बात तो मुद्दे की है।'' मैंने कहा - ''आजकल आचार्य की ढेर सारी जगहें खाली हैं। जगहें भरी नहीं जाती। कारण, उसमें दोनों पक्षों को फायदा होता है। सरकार को भी और ट्रस्टी मंडल को भी।''''वह कैसे?''प्रिंसिपल का वेतन बच जाता है। दूसरी ओर कार्यकारी प्रिंसिपल रखने से ट्रस्टी मंडल उसे जैसे नचाएंगे, बेचारा वैसे नाचेगा। ''लेकिन उनको सेलरी मिलती है।''''हां,''''कितनी?''''जितना अध्यापक को मिलती है।''''एक्स्ट्रा कुछ?''मैंने कहा - ''कुछ नहीं, लेकिन आचार्य का लेबल तो लग जायेगा। साथ-साथ दूसरा फायदा यह है कि अगर आपकी मंडल से अनबन हो गयी तो कुर्सी कभी भी खाली कर सकते हो। मगर पूर्णकालीन आचार्य बन गये और अनबन हो गयी तो.....।''वह बोला - ''मैं तो कार्यकारी प्रिंसिपल ही बनूंगा।''मैंने कहा - ''तुम अच्छे विचारक हो, लेकिन वहां भी एक समस्या है।''''कैसी?''''आपको ट्रस्टी मंडल के आगे-पीछे दुम हिलानी पड़ेगी।''''दुम क्या होती है?''''पूंछ, यार।''''वह तो पशुओं को होती है। मैं तो समाज का श्रेष्ठ शिक्षित व्यक्ति हूं।''मैंने कहा - ''जिस दिन तू कार्यकारी प्रिंसिपल बन गया, उस दिन दुम अपने आप उग निकलेगी। फिर हिलाते रहना।''दुम का बहुत पुराना महत्वपूर्ण इतिहास रहा है। हमारे भारत में दुम की काफी बोलबाला है। इसी सिलसिले में मुझे एक कवि का दोहा याद आ रहा है -दुम हिली कुर्सी मिली, जीभ हिली कि जेल॥मैंने आशीर्वाद देते हुये कहा - ''मित्र, दुम हिलाते रहोगे तो भवसागर पार कर दोगे, लेकिन समाज के एक श्रेष्ठ व्यक्ति का नाश हो जायेगा।''शंकरलाल बनने जा रहे थे कार्यकारी प्रिंसिपल, मगर, उसी समय किसी कॉलेज की पूर्णकालीन आचार्य की जगह आयी। पैसों की लालच को रोक नहीं पाया। वह विज्ञापन की प्रति लेकर मेरे पास आया और कहने लगा -''मैं तो पूर्णकालीन आचार्य बनना चाहता हूं।''''तुम स्वतंत्र हो, जो बनना चाहो बनो, लेकिन यह बताओ कि पीएच.डी. हुये कब? थीसिस तो एकाध महीने पहले तो सबमिट की। मेरी थीसिस सबमिट करने के बाद पांच या छ: महीने में डिग्री आयी थी।''वह बोला - ''उसकी चिंता छोड़, वह सब हो जाएगा।''शंकरलाल रात दिन एक करने लगे। लगभग थीसिस सबमिट करने के बाद डेढ़ महीने में डिग्री लाने में सफल हो गये। इस देश में सब कुछ संभव है। मैंने सुना था कि दक्षिण के किसी राज्य में कुएं की चोरी हो गयी थी, और उस पर मुकदमा भी चला था। सुई के छेद से ऊंट का निकलना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है, लेकिन किसी खिल्ले को पकड़ लिया तो यह काम भी मुमकिन हो जाएगा। भाई, ये हिन्दुस्तान है। शंकर ने मेरे पास आकर कहा - ''डिग्री आ गयी, लेकिन अभी तक इंटरव्यू नहीं निकला।''मैंने कहा - ''यार, आचार्य के सभी गुण आपमें विद्यमान हैं। तुम शीघ्र आचार्य का पद ग्रहण करो।''शंकरलाल आचार्य बनने जा रहे थे, इस खबर से कुछ अध्यापक मित्रों ने सुझाव दिये कि यार, हमारी कौम पर थोड़ी दया रखना, नवनीत ने कहा कि थोड़ा प्रैक्टिकल रहना। शंकरलाल ने सभी मित्रों के सुझावों का ख्याल रखने का वादा किया। इंटरव्यू निकला, शंकरलाल ने जोड़ तोड़ शुरु कर दिया। शंकरलाल राजनीतिक दबाव भी लाए, लेकिन इंटरव्यू में ट्रस्टी का जमाई भी था। उसक ा सिलेक्शन हो गया। इंटरव्यू के दूसरे दिन रोता हुआ चेहरा लेकर आया, और जमीन पर गिरते हुये सहसा उसके मुंह से निकल गया -''हे भगवान! मैं पीएच.डी. क्यों हुआ?''
वरदान मुँशी प्रेमचँद की कहानी
अर्धरात्रि व्यतीत हो चुकी थी। चारों और भयावह सन्नाटा छाया हुआ था। गंगाजी की काली तरंगें पर्वत के नीचे सुखद प्रवाह से बह रही थीं। उनके बहाव से एक मनोरंजक राग की ध्वनि निकल रही थी। ठौर-ठौर नावों पर और किनारों के आस-पास मल्लाहों के चूल्हों की आंच दिखायी देती थी। ऐसे समय में एक श्वेत वस्त्रधारिणी स्त्री अष्टभुजा देवी के सम्मुख हाथ बांधे बैठी हुई थी। उसका प्रौढ़ मुखमण्डल पीला था और भावों से कुलीनता प्रकट होती थी। उसने देर तक सिर झुकाये रहने के पश्चात कहा।
‘माता! आज बीस वर्ष से कोई मंगलवार ऐसा नहीं गया जबकि मैंने तुम्हारे चरणो पर सिर न झुकाया हो। एक दिन भी ऐसा नहीं गया जबकि मैंने तुम्हारे चरणों का ध्यान न किया हो। तुम जगतारिणी महारानी हो। तुम्हारी इतनी सेवा करने पर भी मेरे मन की अभिलाषा पूरी न हुई। मैं तुम्हें छोड़कर कहां जाऊ?’
‘माता! मैंने सैकड़ों व्रत रखे, देवताओं की उपासनाएं की’, तीर्थयाञाएं की, परन्तु मनोरथ पूरा न हुआ। तब तुम्हारी शरण आयी। अब तुम्हें छोड़कर कहां जाऊं? तुमने सदा अपने भक्तो की इच्छाएं पूरी की है। क्या मैं तुम्हारे दरबार से निराश हो जाऊं?’
सुवामा इसी प्रकार देर तक विनती करती रही। अकस्मात उसके चित्त पर अचेत करने वाले अनुराग का आक्रमण हुआ। उसकी आंखें बन्द हो गयीं और कान में ध्वनि आयी।
‘सुवामा! मैं तुझसे बहुत प्रसन्न हूं। मांग, क्या मांगती है?
सुवामा रोमांचित हो गयी। उसका हृदय धड़कने लगा। आज बीस वर्ष के पश्चात महारानी ने उसे दर्शन दिये। वह कांपती हुई बोली ‘जो कुछ मांगूंगी, वह महारानी देंगी’ ?
‘हां, मिलेगा।’
‘मैंने बड़ी तपस्या की है अतएव बड़ा भारी वरदान मांगूगी।’
‘क्या लेगी कुबेर का धन’?
‘नहीं।’
‘इन्द का बल।’
‘नहीं।’
‘सरस्वती की विद्या?’
‘नहीं।’
‘फिर क्या लेगी?’
‘संसार का सबसे उत्तम पदार्थ।’
‘वह क्या है?’
‘सपूत बेटा।’
‘जो कुल का नाम रोशन करे?’
‘नहीं।’
‘जो माता-पिता की सेवा करे?’
‘नहीं।’
‘जो विद्वान और बलवान हो?’
‘नहीं।’
‘फिर सपूत बेटा किसे कहते हैं?’
‘जो अपने देश का उपकार करे।’
‘तेरी बुद्वि को धन्य है। जा, तेरी इच्छा पूरी होगी।’
अबोध प्रतिशोध
Friday, April 18, 2008
मन का दर्द - कलम का माध्यम
एक किसान की एक दिन अपने पड़ोसी से खूब जमकर लड़ाई हुई। बाद में जब उसे अपनी गलती का अहसास हुआ, तो उसे ख़ुद पर शर्म आई। वह इतना शर्मसार हुआ कि एक साधु के
समाधान
एक बार पिता अपनी दोनों पुत्रियों से मिलने गया। पहली बेटी से हालचाल पूछा तो उसने कहा कि इस बार हमने बहुत परिश्रम किया है और बहुत सामान बनाया है। बस यदि वर्षा न आए तो हमारा कारोबार खूब चलेगा।
बेटी ने पिता से आग्रह किया कि वो भी प्रार्थना करे कि बारिश न हो।
फिर पिता दूसरी बेटी से मिला जिसका पति किसान था। उससे हालचाल पूछा तो उसने कहा कि इस बार बहुत परिश्रम किया है और बहुत फसल उगाई है परन्तु वर्षा नहीं हुई है। यदि अच्छी बरसात हो जाए तो खूब फसल होगी। उसने पिता से आग्रह किया कि वो प्रार्थना करे कि खूब बारिश हो।
एक बेटी का आग्रह था कि पिता वर्षा न होने की प्रार्थना करे और दूसरी का इसके विपरीत कि बरसात न हो। पिता बडी उलझन में पड गया। एक के लिए प्रार्थना करे तो दूसरी का नुक्सान। समाधान क्या हो ?
पिता ने बहुत सोचा और पुनः अपनी पुत्रियों से मिला। उसने बडी बेटी को समझाया कि यदि इस बार वर्षा नहीं हुई तो तुम अपने लाभ का आधा हिस्सा अपनी छोटी बहन को देना। और छोटी बेटी को मिलकर समझाया कि यदि इस बार खूब वर्षा हुई तो तुम अपने लाभ का आधा हिस्सा अपनी बडी बहन को देना।
कहानियाँ
उलझन
ए फॉर एप्पल, बी फॉर बैट’ एक देसी बच्चा अँग्रेजी पढ़ रहा था। यह पढ़ाई अपने देश भारत में पढ़ाई जा रही थी।
‘ए फार अर्जुन – बी फार बलराम’ एक भारतीय संस्था में एक भारतीय बच्चे को विदेश में अँग्रेजी पढ़ाई जा रही थी।
अपने देश में विदेशी ढंग से और विदेश में देसी ढंग से। अपने देश में, ‘ए फॉर अर्जुन, बी फॉर बलराम’ क्यों नहीं होता? मैं उलझन में पड़ गया।
मैं सोचने लगा अगर अँग्रेजी हमारी जरूरत ही है तो ‘ए फार अर्जुन – बी फार बलराम’ ही क्यों न पढ़ा जाए?
दुख का कारण
नौकर ने अपनी ओढ़ी हुई चादर चोर को दे दी और बोला, इसमें बांध लो। उसे जगा देखकर चोर सामान छोड़कर भागने लगा। किन्तु नौकर ने उसे रोककर हाथ जोड़कर कहा, भागो मत, इस सामान को ले जाओ ताकि मैं चैन से सो सकूँ। इसी ने मेरे मालिक की नींद उड़ा रखी थी और अब मेरी। उसकी बातें सुन चोर की भी आंखें खुल गईं।
बहुत बार ये प्रश्न सामने आते हैं कि हम स्वतंत्र है या परतंत्र? हम कर्म करने में स्वतंत्र हैं या परतंत्र? हम कर्म का फल भोगने में स्वतंत्र हैं या परतंत
आराम करो
दूरदर्शी
जो मनुष्य केवल काम के प्रारम्भ को देखता है, वह अन्धा है। जो परिणाम को ध्यान में रखे, वह बुद्धिमान है। जो मनुष्य आगे होने वाली बात को पहले ही से सोच लेता है, उसे अन्त में लज्जित नहीं होना पड़ता।