Saturday, April 19, 2008

अबोध प्रतिशोध

वह एक व्याध था। मृगों के पीछे काफी दूर तक दौड़ता चला आया था, पर आज एक भी मृग हाथ नहीं आया। निराश मन से उसने जंगल में एक नजर चारों तरफ डाली और पीछे लौटने ही वाला था कि एक तपस्वी ने टोकते हुये कहा - 'वत्स, क्यों इन सुंदर प्राणियों का खून बहाते हो? इस वन में हर जगह उदरपूर्ति के लिये यूं ही बहुत कुछ मिल जायेगा।''आप कौन हैं?' व्याध चकित होता हुआ बोला। 'मुझे अपना मित्र जानो।' तपस्वी मुस्कराकर बोला। व्याध अवाक, गुनाह की हीन-भावना से ग्रसित एकदम चुप। तपस्वी मुस्कराकर बोला - 'इस वन प्रदेश में अपना कुछ न होते हुये भी ऐश करते हैं हम। भाई, किसी के प्राण लेकर उदरपूर्ति का साधन जुटाना, निर्माण नहीं विध्वंस है। एक मरा हुआ मृग घर ले जाकर तुम विजयी की भांति घरवालों के बीच सृष्टि के निर्माता की तरह गर्वान्वित रहोगे मगर यदि इसके परिवार वाले तुम्हें रास्ते में मिल गये तो उनके समक्ष निर्माता नहीं, तुम विनाशक कहलाओगे।'कहते हुये तपस्वी ने उसके कंधे पर हाथ रखा ही था कि हवा तेज चलने लगी। तपस्वी ने मुस्कराकर उसकी हीन-भावना दूर करने की चेष्टा करते हुये उसके सर पर हाथ फेरा ही था कि हवा और तेज हो गयी - मानो आंधी चलने लगी हो। धूल उड़ने लगी - पेड़ों की डालियां मानो नृत्य करने लगी। बवंडर सा उठ खड़ा हुआ। तभी एक पेड़ उस व्याध पर आ गिरा और वह बेहोश हो गया। तपस्वी भी आंधी की चपेट में न जाने कहां ओझल हो गया। बहुत देर तक तूफान असामान्य गति से सारे वन को रौंदता रहा। करीब घंटे भर बाद तूफान शांत हुआ तो मूर्छित पड़े व्याध की आंखें खुली - बदहवासी का उजाला था आंखों में। चारों तरफ विशाल फैले जंगल को शांत और नीरव पाया। सर उठाकर ऊपर देखा - सपाट आसमान - सूर्य अस्ताचल की ओर बढ़ रहा था। सर पर लगी चोट की पीड़ा तो नहीं थी मगर अंदर बाहर सब तरफ से वह अपने आपको असामान्य महसूस कर रहा था। कभी सर उठाकर क्षितिज पर फैली आसमान की नीली मगर दुधिया चादर को देखता, तो कभी नीचे जमीन की ओर देखता। उसने सामने हवाओं का उत्पात मचा चुके मगर अब स्तब्ध खड़े वृक्ष पर हाथ टेके, डालियों को हिलाया, कुछ समझ न आया कि क्या करें और क्यों करें? उस नीरव हुये वन प्रांगण में शिशु की भांति उछलकूद भी की- देखते देखते अचानक नाम मात्र को पहने हुये अपने कपड़े भी नोचने लगा - जैसे कि उसे समझ न आया हो कि उसके शरीर पर यह सब क्या है? फिर अपनी ही बांह पर चिकोटी काटी। दर्द से बिलबिलाया भी, मगर जान न पाया कि क्या हुआ है, क्यों हुआ है? शायद उसकी याददाश्त चली गयी थी। तभी तो वह बच्चों की सी हरकतें कर रहा था। थोड़ी दूर खड़ा तपस्वी किंकर्तव्यविमूढ सा उसे देख भर रहा था। कांपते हुये शरीर के साथ व्याध कभी इधर कभी उधर तेज कदमों से मानों धरती को नाप रहा था। शायद उसकी जिज्ञासा यह रही होगी कि जिस धरातल पर वह खड़ा है - उसका छोर कहां तक है। अभी थक कर जमीन पर बैठने ही वाला था कि तपस्वी उसके नजदीक आकर बोला - 'क्यों इतने बेचैन हो, वत्स?'व्याध उसे आंख फाड़ कर देखने लगा। प्रत्युत्तर के लिए मुंह खोला, मगर क्या बोलता - याददाश्त चली गयी थी। न भाषा, न शब्द - क्या है, क्यों है, कैसे कहे -वह बच्चों की तरह रोने लगा। तपस्वी ने सांत्वना स्वरूप हाथ बढ़ाया तो व्याध पीछे हटा - और डरकर मुड़कर भाागा, धरती का एक छोर मिला, तब रूका। सामने स्वच्छ दिखते पानी का सरोवर था। पानी देखकर दंग - यहां धरती, जो उसके इतना जोर मारने पर भी हिली नहीं वही यहां चमक-चमक कर हिल भी रही थी। पानी क्या होता है, उसे क्या मालूम - याददाश्त की बेरहम चोट से वह अपने जीवन के पचीस वर्ष पीछे जो पहुंच गया था - नन्हें बालक की तरह उसने पानी को छुआ - हाथ गीले हुये तो अंगुली को होठों पर रखकर मानो चखा हो। प्यास को थोड़ा आराम मिला जब दो तीन बार यों किया। फिर अंजुरि पानी में पसारकर भरी हथेली का पानी मुंह में डाल लिया। बहुत अच्छा लगा। झुककर फिर हाथ पानी में डाला। उसे अपना प्रतिबिम्ब नजर आया - उसे देखकर वह भय से उठ खड़ा हुआ। प्रतिबम्ब में भी वैसी ही हरकत हुई, जिसे देख वह फिर बैठ गया। तभी वह तपस्वी वहां पहुंच गया। उसने व्याध के कंधे पर हाथ रखा। व्याध ने पीछे मुड़कर विस्मय से उसकी तरफ देखा जरूर, मगर अब डरकर भागा नहीं। बल्कि इशारे से आ....ऊ... करके बोलते हुये पानी में उसे अपना प्रतिबिंब दिखाने लगा। इस बार तपस्वी का भी प्रतिबिम्ब था - दो दो प्रतिबिम्ब देखकर व्याध का मुंह पहले की अपेक्षा ज्यादा खुला रहा गया।लेकिन इस बार तपस्वी भी विस्मित था, क्योंकि पानी में अपने प्रतिबिम्ब के साथ उसे एक वानर का प्रतिबिम्ब दिखाई दे रहा था। वहां से नजरें हटाकर व्याध की तरफ देखा तो वह उसे मनुष्य ही नजर आया फिर पानी में उसका प्रतिबिम्ब - बंदर! तपस्वी हरप्रभ था। व्याध थोड़ा चंचल तो थोड़ा भौचक्का भी था। तभी तपस्वी मुस्कराया, क्योंकि पानी के प्रतिबिम्ब आपस में बातें कर रहे थे। बंदर रूपी व्याध प्रतिबिंब में तपस्वी से कह रहा था - 'मैं अंगद हूं। मुझे भगवान राम से अपने बाप को छल से मारने का प्रतिशोध लेना है, बता सकते हो - वे कहां मिलेंगे।'तपस्वी पानी का यह नजारा स्तब्ध होकर देख रहा था कि व्याध मानों सारी बचपन की हरकतें छोड़कर परिपक्वता के जोश में भरकर तपस्वी को झकझोर कर बोला। 'हे साधु, मुझे रास्ता दिखा।' तपस्वी स्तब्धता छोड़कर मुस्कराकर उससे बोला - 'हां वत्स, मैं समझ गया तुम व्याध के रूप में भगवान राम की सेना के एक वानर सैनिक हो। मैं जान गया, तुम बालि के पुत्र अंगद हो।''मैं जो भी हूं मुझे रास्ता दिखाओ तपस्वी।' व्याध बोला। चेहरे से मासूम दिखते जरा नामक व्याध पर अब अपरंपार तेजस्विता आ गयी थी। 'हालांकि भगवान राम के प्रति तुम्हारी भक्ति बेमिसाल है, मगर उन्हीं की इच्छा से बगैर तुम्हारे प्रतिशोध के न तुम्हारी मुक्ति संभव है न स्वयं भगवान की।' तपस्वी ने स्नेहसिक्त वाणी में कहा - 'जाओ, यहां से सौ गज की दूरी पर दक्षिण दिशा में एक वृक्ष के नीचे पद्मासन लगाये तुम्हें भगवान राम मिलेंगे। श्रीकृष्ण रूप में उन्होंने जगत को बहुत उजाला प्रदान किया है। थक कर बैठे हैं - उन्हें सजा देकर उनको भी मुक्त करो और अपना भी आत्म उद्धार करो।'कहकर तपस्वी वेष में आये मुनि वेदव्यास ने उसे एक तीर धनुष पकड़ा दिया, जिसे लेकर वह उधर ही दौड़ पड़ा जिधर का व्यास जी ने उसे निर्देश दिया था। आगे सौ गज की दूरी पर एक वृक्ष के नीचे भगवान श्रीकृष्ण पद्मासन लगाये बैठे थे। व्याध ने दूर से उन्हें लक्ष्य किया और आंखें बंद कर तीर छोड दिया। तीर भगवान के चरणों में जा लगा। अब अंगद जैसे प्रभु के प्यारे वानर को उनके शरीर पर उनके चरणों के सिवा क्या दिखता। भले रूप बदलकर कृष्ण बन जाओ या राम बने रहो। एक आह के साथ केशव ने प्राण त्यागकर अपने धाम को कू च कर दिया। व्याध ने आंख बंद कर ली थी - अब खोली तो न तीर था न धनुष था हाथ में। उसके हाथ जुड़े हुये थे, माथा श्रीकृष्ण के पैरों पर झुका हुआ था जहां उसका तीर चुभा हुआ था। बेचारा जरा चिल्ला उठा -'हाय रे जरा, ये तूने क्या कर डाला?'उसकी याददाश्त वापस आ गयी। तभी पीछे से आकर तपस्वी रूपी वेदव्यास ने उसके कंधे पर हाथ रखा और कहा - 'वत्स, जरा, विलाप मत करो, जो कुछ हुआ -भगवान की इच्छा से ही हुआ है- जाओ अब तुम्हारे भी उद्धार का वक्त आ गया है।'कहकर महामुनि श्री वेदव्यास जी अंतर्ध्यान हो गये और जरा नामक वह व्याध उठकर जंगल में आगे जाकर लुप्त हो गया।

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